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अनेकान्त
"अद्यप्रभृति यगेहे बिम्बं जैनं न विद्यते । मारी भञ्चति न व्याघ्री यथाऽनाथं कुरङ्गकम् ।।७५
स्यांगुष्ठपमाणाऽपि जैनेन्द्री प्रतियातना । गृद्दे तस्य न मारी स्यालार्क्ष्य-भीता यथोरगी ।। ७६ ।। --पद्मपुराण, पर्व ९५
अर्थात्–'आजसे जिसके घर में जिन प्रतिमान होगी उसे 'मारी' इसी तरह ख|जायगी जैसे बिना मालिकके हरिण को व्यात्री खा जाती है। जिसके घर में एक अँगूठेके बराबर भी जिनप्रतिमा होगी उसके घर में मारी उसी प्रकार न आयगी जिस प्रकार गरुडके भय से सर्पिणी नहीं आती ।'
अगर उस समय शुद्रांके घर में जिनप्रतिमा न होती तो वे बिचारे मर ही गये होते । लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि जैनधर्म शद्रोंको इस तरह कुतेकी मौत मरने दे ।
वर्ष १, किरण ६, ७
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का उपदेश दिया था। इस पर एक पंडितराज बहुत बिगड़े थे और बड़ी बुरी तरहसे जवाबतलब किया था। लेकिन उस विदुषी बहनने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि “पंडितजी महाराज ! शूद्रोंको उपदेश देना पाँच पापोंमें से कोई पाप तो है नहीं, न सप्तव्यसनोंमें कर्म के बन्धका ही कारण बतलाया गया है, तब समझ से कोई व्यसन है, और न यह आठ कर्मों में से किसी में नहीं आता कि मैंने क्या अपराध किया है ?" इस
पर पंडितजी महाराज बगलें झाँकने लगे और उनसे कुछ भी उत्तर बन न पडा ।
सौर ! इस विषयको हम ज्यादह नहीं बढ़ाना चाहवे । प्रस्तुत निबंध (जैनी कौन हो सकता है ?) में मुखवार साहब ने बहुतसे प्रमाण दे दिये हैं । सारांश यह है कि, चाहे युक्ति से विचार करो, चाहे भागमसे विचार करो और चाहे पौराणिक चरित्रों का अवलोकन करो, सब जगह जैनधर्म की उदारता के दर्शन होते हैं। परन्तु दुःख और आश्चर्य के साथ शर्म की बात तो यह है कि बहुतसे जैन पंडित पूजा के अधिकार की ही नहीं किन्तु जैनत्वकी ठेकेदारी भी कुछ इने गिले लोगोंके हाथ में ही रहने देना चाहते हैं। हमारे प्राचीन मुनिराज तो चांडालोंको भी जैनी बनाने की कोशिश करते थे और बनाते थे परन्तु आज कल तो कोई भावक भी किसी भंगी चमार या म्य शूद्रको धर्मका उपदेश दे दे तो ये पंडित लाल लालच दिखलाने लगते हैं। करीब दस वर्ष की बात है जब कि एक विदुषी महिलाने मँगियोंको धर्म
समझ में नहीं भाता कि कोई आदमी अगर जैन बन करके आत्मकल्याण करले, जिनपूजा करके कुछ पुण्यबंध करले तो इससे किसीका क्या बिगड़ जाता अथवा लुट जाता है ? परमकृष्ण लेश्याबाला, रौद्रयानी, सप्तम नरकका नारकी तो जैनी ही नहीं सम्यक्त्वी तक बन सके और शूद्रादिको हम जैनी भी न बनने दें, यह अन्धेर नहीं तो और क्या है? चौडालों को जैनी बनानेके लिये वो मुनि भी प्रयत्न करें, नारकियोंको उपदेश देनेके लिये शुद्ध लेश्याबाले देवता भी नरकोंका चक्षर लगाबें, और हम अपने जैनस्य को तिजोडीमें बन्द करके अकड़ते ही फिरें ! यह कोमल शब्दों में भी मूर्खता, दुरभिमान और उम्मलता तो है ही ।
स्मरण रखिये! जैनधर्म, अधिकारों की छीना झपटी का धर्म नहीं है। इस धर्म की छत्रछाया में आकर तो जो जितना धर्म कर सके जो जितना पुण्य कर सकेउसे कर लेना चाहिये। हमें अपना कर्तव्य करना चाहिये । किसीको धर्मकार्यो से रोकने वाले हम कौन ? जैन धर्म, सूर्य के समान है। सूर्य की किरणें भंगीके घर में भी जाती हैं परन्तु इसलिये वह मंगी नहीं बन जाता और न ब्राह्मणोंके लिये बेकाम का ही हो जाता है।