SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आपाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि० सं० २४५६ ] उत्पन्न होगा कि जैनधर्म जिसके विषय में यह बात प्रसिद्ध है कि वह विश्वप्रेम एवं उदारताका समर्थक है और समस्त स्वामीभाइयों को ज्ञाति के भेद भाव को छोड कर परस्पर सदृश भक्तिभाव रखने की प्रेरणा करता है, उस धर्म का ज्ञाति तथा पेटा ज्ञातिकं नियमों क्या संबंध ? तो भी उत्तर व मध्य भारत के जैनों में इतिहास ने ज्ञाति तथा धर्म इन दोनों में परस्पर विरुद्ध तत्त्वों का श्रश्रद्धेय व अभंग सम्बंध करा दिया है। उत्तर तथा मध्य भारत में जैनधर्म के लभभग समस्त आधुनिक प्रतिनिधि वणिक् जातियों के हैं, जो वणिक् जातियां भारतीय प्राचीन समाजान्तर्गत वैश्य समुदाय की प्रतिनिधि हैं । तणिक जातियाँ ब्राह्मण तथा क्षत्रिय जातियों के समान प्राचीन संस्थाएँ हैं, जिनमें से कई जातियों का उल्लेख ईसवी सन् की छठी शताब्दी और उससे भी पहले पाया जाता है । यदि उत्तर और मध्य भारतकी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वरिण कू जातियों के इतिहास की ओर दृष्टिपात करेंगे तो मालूम होगा कि वे सब जातियाँ मारवाड़ तथा गुजरात के कतिपय स्थानों के समाजों उत्पन्न हुई हैं। उन स्थानों के नामों का प्रभाव जातियों के नामों में बहुत अंशों में आज कल भी विद्यमान है । इस ही प्रकार वार्तमानिक मोढ ब्राह्मण और मांढ वणिक मुढेरा गाँव से, नागर ब्राह्मण तथा नागर वैश्य बड़नगर नामक स्थान से, ओसवाल वणिक् आशियानगरी से और श्रीमाल वणिक भीनमाल नामक स्थान से उत्पन्न हुए हैं । ये ही ब्राह्मण, जो प्राचीन समय में मूल से जैन थे उन्होंने शंकराचार्य तथा उनके अनुया यियों के प्रभाव की प्रबलना से जैनधर्म को सदा के लिये त्याग दिया । इस ही कारण से ब्राह्मण जाति ने आधुनिक जैनसमाजको सामाजिक परिस्थिति ४६५ जैनधर्म के अन्तिम इतिहास में कोई भी महत्व -शाली स्थान हस्तगत नहीं किया। दूसरी ओर से जो क्षत्रिय मूल से जैन थे, उन्होंने क्रम से अपना प्राचीन सैनिक व्यवसाय और धंदा छोडकर ऐसा व्यवसाय स्वीकार किया था जो जैनधर्म के सिद्धान्तानुसार कम हिंसाकारक है अर्थात् वे व्यापार करने लगे और उनकी ज्ञातियों का वणिक ज्ञातियों में समावेश हो गया । हम निश्चित रीति से जानते हैं कि आधुनिक ओसवाल, श्रीमाल और पोरवाल ज्ञातियों का एक भाग चौहान, राठौड़, चावडा व सोलंकी और अन्य प्रसिद्ध राजपत गोत्रों का वंशज है, जिनके कि नाम आज कल भी बहुत से जैनों के गोत्रों में पाये जाते हैं 1 उपर्युक्त उल्लेख से स्पष्ट प्रतीत होता है कि बहुत शताब्दियोमं मात्र वणिक ज्ञाति ही के लोग जैनधर्मके प्रतिनिधि होते आए हैं। इतना ही नहीं किन्तु वणिक् ज्ञातियों के ओसवाल, श्रीमाल, पोरवाल, वायड और मांढ आदि बड़े बड़े भाग शुद्ध जैन ज्ञातियोंके रूपमें थे। चौगसी वणिग् ज्ञानियाँ, जो कि इतिहास में प्रसिद्ध हैं, उनके सम्बंध में इतना ही निश्चित है कि इनका एक भाग अवश्य जैनधर्मानुयायी था। क्योंकि उनमें से बहुत से लोगों ने मंदिरादि निर्माण करा कर जिन-प्रतिमायें व मंदिरों के शिलालेखों में अपना नाम सदा के लिये लिखवाया है। जैन माधुयों की शिथिलता व उदासीनता तथा उत्माही वैष्णव धर्म के वल्लभाचार्यसम्प्रदाय के उत्थान के परिणाम से सोलहवीं, मतरहवीं शताब्दी में उपर्युक्त इन प्राचीन जैन वणिक् ज्ञातियों के बहुत मनुष्यों ने अपना मूल धर्म छोड़ कर वैष्णव धर्म अंगीकार किया था । पूज्यपाद ख० जैनाचार्य श्रीमद् बुद्धिसागरसूरि जी स्वसंपादित जैनधातुप्रतिमालेखसंग्रह की प्रस्तावना में फर्माते हैं, "मैंन सुना
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy