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________________ ४६४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८,९,१० कार्य करते हैं, और सच्चे जैनों की भांति उत्साहपूर्वक करते हैं । उन लोगों के लिये जैनधर्म एक नैतिक आजैनों के कतिपय नियम पालते हैं । इस वस्तुस्थिति दर्श तथा सच्चे तत्त्वज्ञान की एक चाबी-कुञ्जिका है। के दृष्टान्त के तौर पर मैं उदयपुर के नामदार इस लिये दक्षिण भारतकं समस्त दिगम्बर अपने धर्ममहाराणा साहब तथा कुँवर माहब के प्रसंग का बन्धनोंद्वारा गाढ-घनिए-प्रेमरूपी सांकलमें परस्पर उल्लेख करती हूँ, जो कट्टर हिन्दू होने पर भी उदयपुर- इस प्रकारसे बंधे हुए हैं कि भिन्न भिन्न स्थानों में रहने समीपवर्ती केशरिया जी के प्रसिद्ध मंदिर का विधि- हुए तामिल, तेलग, कनडी और मलयालमादि भिन्न पूर्वक आम पब्लिक में पूजन व दर्शन करते हैं। ऐसे भिन्न भाषायें तथा उच्च व नीच गोत्र होने पर भी वे सब और भी कई एक गजा महागजा हैं, जो जैन मुनि- जातियाँ एक ही संघ के सभ्यकी समान मालूम होती गजों के रक्षक तथा भक्त कहलाये जा सकते हैं । वे हैं-अर्थात् उन लोगोंमें किसी प्रकारका भेदभाव नहीं लोग जैन मुनिराजों की देशना से प्रफुल्लिन होते हैं, व है। वे संघ, ज्ञाति व पेटा ज्ञाति आदिकी मतभिन्नता मुनिराजों की प्रेरणा अथवा उपदेश के प्रभाव से जैन से अनभिज्ञ हैं । और उनमें सर्वसाधारण भोजनधर्म के सिद्धान्तों का अनुसरण करके स्वयं जीवरक्षा- व्यवहार एवं कन्याव्यवहार प्रचलित हैं । वे पवित्र दि के नियमों का पालन करते हैं और अपनी प्रजा से निष्कपट-हृदयी तथा धर्म-प्रेमी दिगम्बर जैन जैनकुल पालन कराने के लिये "अभारी पटह" की उद्घोपणा में जन्म लेनेवाले और जन्म नहीं लेनेवाले प्रत्येक करते हैं। जैन के साथ भाई तथा मित्र जैसा व्यवहार करते हैं । अब यह मालूम होता है कि एक ओरसे जैनधर्म किंतु उत्तर तथा मध्य भारत में जैनधर्म की श्वेमें अनुरक्त रहना और उसके नैतिक सिद्धान्तों के अ- ताम्बर और दिगम्बर ये दो मुख्य शाखाएँ स्वकीय नुसार जीवन व्यतीत करना और दूसरी ओर जन्म विविध प्रतिशाखाओं-सहित विद्यमान हैं । वहाँ जैन एवं संस्कार से जैन होना, इन दो विषयों में अधिक स्कूलादि शिक्षालय मौजूद हैं। और वहाँ पर श्रावक भिन्नता नहीं है। यदि दक्षिण भारतकी परिस्थिति पर व साधु-मुनिराज जैनधर्मके प्रचार कार्य के लिए उत्साहदृप्रिपात करेंगे तो सचमुच इतना अंतर दृष्टि गोचर पूर्वक परिश्रम करते हैं । उस देशमें "जैन” इस गंभीर नहीं होगा । उस प्रदेश के शाँत-हृदयी बद्धि-शाली आशय वाले पद से विभूपित लोगों को अनि-कठोर द्रविड-जैनों ने दिगम्बर जैन धर्म का, जो कि जैनधर्म तपम्यातथा सूक्ष्म क्रियादि करनेका कर्त्तव्य उस"जैन" की मुख्य दो शाखाओं में से एक है, प्राचीन समय शब्दके ही अन्तर्गत रहा हुआ है। "जैन" इस उपाधि सं ही पवित्रता पूर्वक आचरण तथा रक्षण किया से युक्त व्यक्ति जन्म से ही ज्ञाति व पेटा ज्ञाति के है । इन महानुभावों का जैनधर्म-विषयक जो ज्ञान तथा नियमों में बंधा हुआ है। जिन ज्ञातियों तथा पेटा ज्ञाक्रियाकांडादि हैं, उन सबका आधार मौखिक परंपरा तियों का प्रभाव उस व्यक्ति के समस्त कौटुम्विक कार्यों ही है-अर्थात् पिता अपने पुत्र को, माता अपनी पत्री में आजीवन दबाव डालता है-यह बात भी जैनधर्म को सैद्धान्तिक उपदेशक के बगैर ही उस धर्म के सि- में समाविष्ट है। द्धान्तों का अध्ययन-अध्यापन करते थे, और अब भी वाचकों के मन में आश्चर्यपूर्वक यह प्रश्न अवश्य
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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