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________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं० २४५६ ] काटक-जै आधुनिक जैनसमाजकी सामाजिक परिस्थिति ONLY [ लेखिका - श्रीमती भारतीय साहित्यविशारदा डा० क्रौके. पी. एच. डी. ( सुभद्रादेवी) ] जैनधर्म भारतवर्ष के अति प्राचीन धर्मों में से एक है, जोकि बौद्ध धर्म से भी प्राचीन है, और प्रायः वर्तमान अभिप्राय के अनुसार अति प्राचीन हिन्दुदर्शन में भी पूर्व अवस्थितिवाला है । यद्यपि जैनधर्म ने द्ध की भांति शक्ति एवं विस्तीर्णता नहीं पाई थी, और भारतवर्ष की सीमा को भी उल्लंघन नहीं किया था - अर्थात् बौद्धमत की भांति भारतवर्ष के अतिरिक्त चीन, जापान आदि प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार नहीं हुआ था, तो भी इस धर्म ने एक समय भारतीय धार्मिक जीवन पर बड़ा प्रभाव डाला था । क्योंकि किसी समय में राजा-महाराजा सरदार लोग भी इस धर्म के अनुयायी थे । और इस धर्म ने अपने अहिंसात्मक सिद्धान्तों का प्रभाव अन्य धर्मों पर डाला था । फिर भी अंतिम शताब्दियों में इसका प्रभाव न्यून हो गया है । इस धर्मके वर्तमान निश्चित अनुयायियों की संख्या प्रति मनुष्य-गणना ' । ( Census report ) के अनुसार न्यूनता के मार्ग की ओर प्रयाण करते करते ११००००० एकादश लाख की अंतिम जघन्य स्थिति तक पहुँची है। परंतु उपर्युक्त उल्लेखानुसार जैनधर्म के प्रभाव की इस परिवर्तनके अनुसार अवनति हो रही है और जैन धर्म ने भारतवर्ष के आत्मिक-धार्मिक जीवन पर अपने १ ब्रिटिश गवर्नमेंट ( Birtish Government ) की ओर से प्रति दस वर्ष में जो मनुष्यों की सख्या गिनी जाती है उसे मर्दुमशुमारी या मनुष्यगणना कहते हैं । ४६३ प्रभाव की शिक्षा करना बंद कर दिया है, ऐसी कल्पनायें करना ठीक नहीं है । बात यह है कि जैनधर्म, उन मनुष्यों के लिये जो कि जाहिरा तौर से जैन हैं अर्थात जो जन्म और परम्परा से जैन हैं, उनकी ही मर्यादा में नहीं है। किंतु वास्तविक रीति से जैनधर्मानुयायियोंकी संख्या मनुष्य गणना (Census report ) के कथन की अपेक्षा से अधिक प्रमाणवाली है । जैनधर्म के सिद्धान्तो में, संभवतया जिनका कि अनुमान बाह्य लोग कर सकते हैं उनसे अधिक लोग भा सकते हैं। क्योंकि जैनधर्म का, ऐसे विद्वान्, विवेकी एवं उत्साह संपन्न जैन मुनिराजोंद्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान पर निरंतर प्रचार हुआ और आज कल भी होता है, जो मुनिराज मात्र अशिक्षित वर्ग के लोगों को ही नहीं, किन्तु खास करके समग्र देश के शिक्षित लोगो को भी आकर्षित करते हैं और अन्य धर्मानुयायियों में भी अपने धर्म के प्रति प्रेम, मान और उत्साह उत्पन्न कराते हैं। ऐमे बहुत से मनुष्य हैं, जो यद्यपि जन्म, परंपरा और क्रियाकांडादिसे हिन्दू पारमी, मुसलमान धर्मों का आचरण करते हैं और उन धर्मोको छोडनेका विचार भी नहीं करते हैं, तो भी अपने तत्त्वज्ञान एवं नैतिक आदर्श का अनुसरण करके सच्चे जैन कहे जा सकते हैं। ऐसे और भी अन्य धर्मी लोग विद्यमान हैं, जो अपने पुराने (परंपरागत) धर्ममें लवलीन होने पर भी नियमित रीतिसे जैन मंदिरों में दर्शनार्थ जाते हैं, जैन मूर्तियों की पूजा, पाठादि दैनिक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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