SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 529
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५५० अनेकान्त वर्ष १,किरण ८,९,१० पक्षपाती प्रत्यभियोगों ( प्रतिदोषारोपों ) से, जो हो सकता है ?" लेखसे जान कर मुझे निहायत कि दूसरे इतने अधिक पत्रोंमें पाये जाते हैं,अपने खुशी हुई है। क्योंकि मेरे भी ऐसे ही विचार हैं पत्रको सावधानीके साथ सुरक्षित रक्खा है । जैस कि श्वे. जैनमें छपे हैं । लेखके नीचे उचित यह बात ऐसी ही है जैसी कि होनी चाहिये, भाषामें सम्पादकीय नोट लिखनेकी शैनी निष्पक्ष क्योंकि अहिंसा जैनधर्मकी आत्मा है । यदि आप ममालोचकताको प्रकट करने वाली है, बहुत जेन मत्यका प्रकाशन इसी प्रकार जारा रकग्वे जैसा विद्वान-यवक सरस्वती-माधुरी-जैसे जैन पत्रकी कि आप अब तक करत रहे हैं, तो आप पबलिक प्रतीक्षा और याचना करते थे, और करते हैं। पत्रों की दुनियामें एक अपूर्व म्टैन्डर्ड ( आदर्श ) 'अनकान्त' को ही जैनसरस्वती या माधुरी बनाने स्थापित करेंगे । मैं धर्म और समाज के लिये आप की मर्वनामुखी शुभ प्रवृत्ति करनेमें तत्पर रहना । के मेवामय दीर्घजीवनकी अभिलापा करता हूँ।" आप हमेशा इम उदात्त-निष्पक्ष एवं सुधारक७१ मुनि श्रीहिमांशुविजयजी 'अनेकान्ती', नीनिम कार्य करते रहेंगे तो शासन देव शासन मवाके उन ध्येयकी पर्तिकं लिये आपका मार्ग शिवपुरी (ग्वालियर) निष्कगटक करेंगे।" "चैत तक पढ़ हुए 'अनकान्त' के अंकाम ७२ मुनि श्रीविद्याविजयजी, अधिष्ठाता 'चोरआपकी विद्वत्ता और उदार नीति बहुत पसन्द तत्त्वप्रकाशकमंडल' शिवपुरीपाई है, इम पत्रके द्वाग अनेक विद्वानांको अपने "" अनेकान्त' को प्रारंभमे दग्वता आया हूँ। अपने विचार प्रकट करने का सुअवसर प्राप्त होगा, आज तकके सभी अंक, जैसी मैं उम्मीद रखता मैकड़ों ग्रामों और शहगेका मन्दिगे आ गहला था, वैसे ही निकले हैं, यह अत्यन्त प्रसन्नताकी का प्राचीन इतिहास प्रसिद्धिमें आवंगा, हजारों जैन और जैननगेको जननत्वज्ञान, जनइतिहास, बान है । प्रारभका उत्साह और लेग्योकी उत्तम ताराप्रवाह मंद नहीं हुआ है, इसका मैं जैनजनमाहित्य एवं जनी अहिंमाका मत्य परिचय ममाजका सौभाग्य समझता हूँ । सचमुच जैनहोगा, जब कि इम पत्र (अनकान्त) की वर्तमान समाजमें ऐप पत्रकी अत्यंत ही आवश्यकता थी। नीति विपरीत न हो । परन्तु उदार नीतिस पगने विचार वाले लोगोंके आक्षेपास्त्र भी बहुन सहने। शामनदेव अापकी इस शुभ प्रवृत्तिको चिरकाल पड़ेंग जैसे कि जनहितेपी का महने पड़े थे। तक निभाये रग्वनेका सामर्थ्य समर्पित करे।" परन्तु जेनहितैपीकी तरह आप ऐसे अस्त्राम डर ७३ पो० बनारसीदासजी जैन, एम. ए., पी. कर पीठ नहीं बताना-'अनकान्त' को बन्द नहीं एच.डी., ओरियंटल कालेज, लाहौरकरना । साहित्य के क्षेत्रमे आपके जैसे उदार वि- 'अनकान्त' के संपादक महोदयकी कृपासे चार प्रतीत होते हैं वैमे जैनसमाज और जैनधर्म- ___मुझे इसके कई अङ्क देखनका सौभाग्य प्राप्त के विषयमें भी उदार विचार हैं यह "जैनी कौन हुआ । वैसे तो जैनसमाजमें बहुतसे पत्र और
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy