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________________ ४२४ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० इच्छा करूँ ना शस्त्र का उपयोग कर सकता हूँ। परंतु (४) ऐसा समय आनेके प्रथम ही शांतिपूर्वक समझा देना ममय जाने के साथ बात विस्मरण होने लगी, मेरे मुनिधर्मका कर्तव्य है, पश्चात् कोई यह न कहे कि राजा. गर्दभिल्ल ने विचार किया, कालकाचार्य बंचाग जैन शासनके एक मुनि ने अपनी बहनके लिए. जैन जैन माधु ! केवल धमकी देकर देश छोड़ कर च। धर्म की आज्ञाका उल्लंघन किया-ममम्त जैन संघका गया है। मस्तक लज्जा से नमाया। मुनि तथा क्षत्रिय कुमार इतना समय व्यतीत होने पर भी मरम्वती मात्र मृत्य स ना निर्भय होत हैं।” परम शांनि में इनना अपने भाई के आगमन की प्रतीक्षा करनी अन्न पर कहते हुए कालकाचार्य गर्दभिलके गजमहल में पीछे की एक अँधेरी कोठरी में बंद रह रही थी । गर्दभिः. लौट आए। ने बल अथवा लालच-द्वारा उसे वश करने का गजमहल की सीढ़ियाम उतरत हुए वे शीघ्रता आशा त्याग दी थी। असह्य एकान्त तथा यंत्रणा के में आगे बढ़े, किन्तु प्रवेशद्वार पर पहुँचने के प्रथम कसे मुक्त होने के लिए आज नहीं तो कल अवश्य ही वे चौंके और एक क्षण को वहीं खड़ हो गए। ही मेरे पैरों पड़ती हुई आवेगी, इस प्रकार मन को दाहिनी पार गजा का अन्तःपर था उमी और कान संतापित कर वह अनुकूल समय की प्रतीक्षा करन लगाया: लगा। ___ "कोई गता हो एमा ज्ञान होता है ! मरम्वती ना सिंधु नदी के तट पर रहने वाली शक जाति के नहीं !" अशक्त वृद्ध परुप के दीर्घ श्वास की मदश बहुत म सामंत एक साथ उज्जयिनी नगरी पर टूट उम. मुँहसे ये शब्द निकले। पड़े। टिट्टियों का समूह जिम प्रकार नभ मंडल की ___नहीं ! मरम्वती सदन करती है, यह केवल आच्छादित कर देता है उसी प्रकार इन मामना ।। मात्र भ्रम है ! इसने एक बार कहा था कि स्त्रियों में मैन्यममूह मालव देश की भूमि पर फिरने लगा। ___ अभिमान में अंधा हुआ मालवपनि गर्दभिः । पुरुषों की महश आत्मा विगजमान है, इतना ही नहीं किंतु पुरुषों की अपेक्षा उनमें विशेष प्रात्म-रक्षण विलामनिद्रा मे जागृत हो इसके प्रथम ही उज्जयिनः शक्ति है" का अजेयगढ़ टूट गया । जिम प्रकार तालाब की पा.. टत ही कल-कल नाद करता प्रचंड वालिंग महल ___ मरस्वती स्वयं अपने शीलवतके रक्षण में संपूर्णतः मुख में बह निकलता है उसी प्रकार सैनिक गग्गा ममर्थ है, यह विचार करते हुए कालकाचार्यन हृदय-, हृदय- अमरपुरी जैसी उज्जयिनी में घमने लगे। एक घट्ट स्थ निर्बलता को निकान डाला । वह द्विगुणिन बल प्रथम जहाँ नत्य, गीत और प्रामाद की लहरें उछलनी तथा उत्माहमे आगे चला और किसी से कुछ कहे थी वहाँ भय और चिंताका वातावरण व्याप्त हो गया। बिना उज्जगिनी की मीमा का उल्लंघन कर गया। भकंप के वेग से कंपित होने पर समुद्र का जल अचा लोग कहते थे कि-"कालकाचार्य बेचाग वितिम नक अदृश्य हो कर जिस प्रकार तली में रहने वाले हो गया है, जैन मुनि को इतना क्रोध नहीं चाहिए" धारदार पत्थर निकल आते हैं उसी प्रकार उज्जयिनी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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