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________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कर्णाटक साहित्य और जैनकवि ४७३ और मराठी के 'ज्ञानेश्वर' जैसे ग्रन्थ निस्सन्देह इसके अपना नाम अमर कर दिया है। इसी से आज भी बाद की कृतियाँ हैं। संपूर्ण कर्णाटक भूभाग उनके सुयशके गीत गा रहा कन्नड़ भाषा का व्याकरण भी संस्कृत के समान है। तेरहवीं शताब्दि तक कन्नड़ भाषाके जितने प्रौढ सर्वांगपूर्ण है । प्राचीन कर्णाटक व्याकरण उपलब्ध प्रन्थकर्ता हुए हैं, वे सब जैनी ही थे। इससे इस बात हानसे कर्णाटक भाषाके प्राचीन ग्रंथोंको अधिक सुल- का भी अनुमान हो जाता है कि उस समय कर्णाटक भतासे अध्ययन कर सकते हैं । जिन्होंने व्याकरणहीन प्रदेशमें जैन धर्म का कितना अधिक प्राबल्य था। इन प्राचीन मराठी ग्रंथों तथा हिन्दी ग्रन्थोंको पढ़ने के जैन कवियोंके गंग, राष्ट्रकूट, चालक्य, बल्लाल आदि लिये प्रयत्न किया है उन्हें इस व्याकरणका महत्व वंशों के राजा लोग अनन्य पोषक तथा प्रोत्साहक थे । विदित होगा। अत एव जैनियोंसे उन्नति पाये हुए कर्णाटक भापाकर्णाटक साहित्य के विषयमें सुदीर्घ कालसे ही साहित्यमें उस समय काव्य-नाटकादि प्रन्थोंके अतिलक्ष्य देने का उद्योग किया जा रहा है। अंतिम श्रत- रिक्त वैद्यक, ज्यातिष, मन्त्रवाद, कामशास्त्र, पाकशास्त्र कंवली भद्रबाह स्वामी जब उत्तर भारत में बारह वर्ष रत्नशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र आदि अन्यान्य विषयों के का दुर्भिक्ष पड़ने का हाल जानकर अपने शिष्यों के कई मौलिक ग्रन्थ उत्पन्न हुए थे । परन्तु आगे चल साथ दक्षिण भारत में पधारे उस समय का इतिहास कर बल्लाल राजा बिट्टिदेवके वैष्णवमत स्वीकार करने जैन समाजमें सुप्रसिद्ध है । इनके अनन्तर इनके अन- और बसवक लिंगायन मत की स्थापना तथा कालयायियों में कतिपय शिष्यों ने दक्षिण भारतमें जैनधर्म चर्य राजवंशके नाशसं राजाश्रयस वंचित हुए जैनियों का प्रचार करना प्रारंभ किया और उनमें कई शिष्यों का प्राबल्य नष्ट होने लगा और इसके साथ ही जन ने जैनधर्मका प्रचार सर्वोत्कृष्ट सुलभ माहित्य-द्वारा ही कवियों की संख्या भी घटने लगी। करने की प्रतिज्ञा की । उन्होंने अपनी प्रतिज्ञा की परी यह सब कुछ होते हुए भी एम. आर. श्रीनिवासकरने के लिये अपनी सर्व शक्ति का प्रयोग कर कर्णा- मूर्ति बी.ए.का कहना है कि इस समय कर्णाटक जैनटक साहित्यको उन्नत, सदृढ एवं परिपर्ण बनाया। साहित्यकी जितनी अभिवृद्धि हुई उतनी अभिवद्धि उम प्राचीन कर्णाटक साहित्य इन्हीं के प्रयत्नका एक फल की कभी भी अन्य समयों में नहीं हुई थी। वे इस असाहै। आज भी कन्नड साहित्यको उन्नत, प्रौढ और परि- मान्य फलकी निष्पत्तिमं निम्नलिखिन हेतु बताते हैं:पूर्ण करनका प्रथम श्रेय जैनाचार्यों और जैनकवियोंको (१) यदापि जैनियोंके शक्तिस्थान प्रबल मठ हीथे; दिया जाता है। यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि जैनि- फिर भी राजाश्रय प्राप्त होने पर कविगण आस्थानयों के द्वारा ही कन्नड़ भापाका उद्धार हुआ है और कविरूपसे काव्योंकी रचना किया करते थे। जैन मुउन्हीं लोगोंने इस भाषा-सम्बंधी साहित्यको एक उच्च नियों के निकट व्यासंग करते हुए नदाझानुसार या म्व श्रेणीकी भाषाके योग्य बनाया है। कन्नड़ साहित्यको विद्वत्प्रदर्शनार्थ या पुगण-रचना-द्वारा पुण्यलाभार्थ वे उन्नतिके शिखर पर पहुँचाने में जैन पंडितोंने अपरिमित काव्य बनाया करते थे । इन विषयो के हमें बहुत से परिश्रम किया है और उक्त साहित्यमें सदाके लिये उदाहरण मिलते हैं। राजाश्रय अनिश्चित होने पर भी
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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