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________________ ४७४ अनेकान्त वर्ष १, किरण ८,९,१० जैनियोंको मठोंका पाश्रय सदैव सिद्ध रहा है। बात सिद्ध होती है कि पन्द्रहवीं शताब्दिमें पश्चिम (२) बिहिदेव के वैष्णव होने पर भी उनके बादके तीरस्थ देशोंमें जैनमत उन्नत दशामें था । बल्लाल चक्रवर्ती जैनमत पक्षपाती ही रहे हैं । बल्लालों (६) अंतमें एक और मुख्य कारण हमें जानना के अंतःपुर में जैनमतावलंबिनी महिलाएँ अवश्य रहती आवश्यक है और वह यह कि, सामान्यतः कर्णाटक थीं । शासनोंसे ज्ञात होता है कि बल्लाल चक्रवर्तियोंने चक्राधिपति जाति और मत-भेदसे विशेष कलंकित साक्षात् जैन स्त्रियोंसे विवाह किया है और उन स्त्रियों नहीं थे, वे ब्राह्मण तथा जैनियोंके मन्दिरोंके लिय सने जैन मन्दिरोंको दान दिया है । इससे यह बात सिद्ध मान भावसे भूदान आदि दिया करते थे और उन्होंने होती है कि बल्लाल लोग न कट्टर वीरवैष्णव-पक्षपाती अपने प्रास्थानों में सभी मतावलम्बी कवियों एवं मही थे और न उन्होंने जैनमत-ध्वंसकी कोई दीक्षा ही त्रियोंको स्थान देकर उन्हें समान रूपसे प्रोत्साहिन ली थी। किया है । कर्णाटक के बहुतसे राजा भिन्न मतावल(३) वीरशैव और ब्राह्मणमत प्रबल होने पर भी म्बियों के वाद-प्रतिवादको सहर्ष सुन कर सन्मानपूर्वक जैनी लोग वाद-विवादमें उनको जीतकर अपने मतकी सभी की रक्षा करते रहे हैं। इस विषयमें हमें अनेक उत्कृष्टताको स्थिर रखते थे। वादिकुमुदचंद्र, कुमुदेन्दु, उदाहरण मिलते हैं । अतः निस्संदेह रूपसे हम कह तेरकणांबिके बोम्मरसका पितामह नेमिचंद्र आदि सकते हैं कि कर्णाटकमें चाहे किसी भी मतके कवि हो जैनमत के उज्जीवन-उद्योतन के लिये बराबर कटिबद्ध प्रोत्साहन मिलने से वे नष्ट नहीं हुए। इसके अतिरिक्त ईसाकी १२ वीं और १३वीं श(४) बल्लालोंके चक्राधिपत्यमें कतिपय प्रबलमन्त्री, शताब्दियों में शैवों तथा वैष्णवों के साथ भिड़ कर अनेक धनिक व्यापारी और बहुतसे शूरवीर सामन्त जैनियोंन अपने स्थानकी रक्षाके प्रयत्नमें अनेक ग्रन्थों नरपति जैनी ही थे । अतः वे कवि निराश्रय नहीं थे। की रचना की है। अपनी शिष्य-परम्पराको जैनमतइनसे द्वेष करने तकका वैष्णवमताभिमान बल्लालोंमें सम्बन्धी प्रन्थ सरल हों इस खयाल से अनेक कवियों नहीं था । बिहिदेवके कट्टर वीरवैष्णव सिद्ध होने पर ने उस समय अनेक व्याख्यानों एवं टीकाओंकी रचना भी शेष बल्लाल राजाओंने अपने पूर्व मताभिमान की की और संस्कृत मूल प्रन्थोंको कन्नड़ में अनुवादित यथाशक्ति रक्षा ही की है और यह बात शासनोंसे सिद्ध किया । जिस समय वीरशैव तथा ब्राह्मण अपने अपने होती है। मत-प्रचारार्थ योग्य साधनोंको एकत्रित कर अपने मत (५) सौन्दत्तिके रट्टोंमें और पश्चिम तीरके तुलुओं की उत्कृष्टताको घोषित करते हुए अन्यान्य मतोंका में जैनमतावलंबी ही शासन करते रहे हैं । रट्ट-राज्यके अवहेलन करते थे उस समय जैनी भी अपने धर्मप्रतिष्ठाचार्य मुनिचन्द्रनी जैनकाव्य-कर्ताओं के वि- ग्रंथों एवं पुराणोंका कन्नड़में प्रचार करते हुए ब्राह्मण शेष प्रोत्साहक थे । तुल देशके राजा लोग अपने प्रा- तथा शैवमतकी अवहेलना करनेवाले प्रन्थोंको लिखने स्थान-कवियों से उत्तमोत्तम जैनकाव्योंकी रचना करा- लगे। वे जनसाधारणको सुगमतासे बोध करानेवाली या करते थे। कार्कलके गोम्मटेश्वरकी स्थापनासे यह कथाओंको योग्य शैलीमें रच कर जैनमतकी सर्वोत्कृ
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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