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आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] कर्णाटक साहित्य और जैनकवि पृताको पामरों तक को समझाते रहे। इस प्रकार क- "अभिनववाग्देवी" की उपाधि प्राप्त थी। विद्वानों तिपय कालज्ञ जैन कवियोंने ईसाकी १२वीं तथा १३वीं का मत है कि यह (स्त्री कवि) लगभग ११०५ में विद्यशताब्दीमें काव्यवस्तु और उसकी शैलीमें परिवर्तन मान थी । इसी कवीश्वरीकं विषयमें मेग एक छोटाकरके अपने साहित्यमें नूतन क्रमको स्थान देना श्राव- मा लेख 'वीर' पत्रके वर्ष चतुर्थकी संख्या ३ में प्रकाश्यक समझा । उस समय नूतन क्रमावलंबी जैन क- शित हो चुका है। वियोने यथासाध्य संस्कृत पद-प्रयोगको कम करके कर्णाटक-साहित्य-संवाका कार्यभार तीन धर्मानुदेशभाषाको विशेष स्थान दिया और अलंकारादि को यायियोके हाथोंमें ही रहा है। जिस समय जिस धर्म न्यन करके पाण्डित्यको घटाना आरंभ किया। जन- की प्रधानता थी उस समय उस धर्मके शिष्योंने मुख्यमामान्यको मान्य हो ऐसी शैलीमें वे ग्रन्थ रचने लगे। तः उत्कृष्ट गतिस साहित्यकी सेवा की है । प्रायः ५०० परंतु यह परिवर्तन शीघ्र ही सर्वत्र आचरणमें नहीं स १२०० तक जैनियों का विशेष प्रभाव था। अतएव आया; क्योंकि इस समय भी बहुत स जैनकाव्य प्रौढ़ कर्णाटक भाषाका प्रारम्भिक काल-सम्बन्धी साहित्य शैली ही में रचेगये हैं । दीर्घकालीन संस्कृत वाङ्मया- उनकी लेखनी द्वारा ही लिखा गया है । इस विषयमें नुकरणसे आगत अभ्यासको पण्डित कवि सहसा कैसे कर्णाटक साहित्यके मर्मज्ञ श्रीमान शेप० भि० पारिश. छोड़ते ? साथ ही, यह भी ज्ञात होता है कि उससमय वाडका अभिप्राय निम्न प्रकार है:संस्कृताभिमानियोंको देशभाषामें विशेष अभिमान "लगमग ईसाकी छठी शताब्दि से १४वीं शताब्दि नहीं था । देशभाषामें पद-सामग्रीकी न्यूनताको देख तकके ७-८ सौ वर्ष-सम्बन्धी जैनियोंके अभ्युदयकर संस्कृतप्रयोगकी बहुलताका समर्थन करने वाले प्रातिनिमित्त वाङमयका अवलोकन करना उचित है। कवियोंमें दोषारोपण करना भी उचित नहीं है । तत्कालीन करीब २८० कवियों में ६० कवियाको स्मअस्तु; यह उल्लिखित परिवर्तन शीघ्र ही न होकर एक रणीय कवि मान लेने पर उनमें ५० जैनकवियोंके नाम दो शताब्दियों तक होत होते १५ वीं शताब्दिके प्रारंभ ही हमारे सामने उपस्थित होते हैं । ५० कृतियोंमें से तक लगभग सभी जैन कवियोंन नूतन मार्गका अवल- ४० जैन कृतियोंका हम प्रमुग्व मान सकते हैं । लौकिक म्बन किया । यह बात साहित्यालोचनास विशद हाती चरित्र, पारमार्थिक तीर्थकरोंके पुराण, दार्शनिक आदि है । इस समय उत्पन्न हुए जैन षट्पदी और सांगत्य- अन्यान्य सभी प्रन्थ जैनियोंके द्वारा ही जन्म पाकर ग्रन्थोंकी संख्या अन्य मतसम्बन्धी प्रन्यांकी संख्यासे व कन्नड़ साहित्यके ऊपर अपने प्रभावको शाश्वत कम नहीं है । (देखो, कर्णाटक-साहित्य-परिषत-पत्रि- जमाये हुए हैं । गद्याभिमुख एवं सुलभशैली पर ग्चे का वर्ष ९ अङ्क ४)।
___ गये इधरके चेन्नबसवपुराण, कर्णाटक महाभारत जिस प्रकार कन्नड भाषाके कवियोमें जैनकविही आदि ग्रन्थोंको देख कर सहदय पाठक निश्चयतः मुग्ध आदिकवि हैं उसी प्रकार स्री-कवियोंमें जैन स्त्रीकवि होंगे तथापि सुविख्यात जैनियोंक प्राचीन कन्नडकी 'कन्नि' ही आदिकवि थी। यह 'कन्ति' द्वारसमुद्र के प्रौढता पर लक्ष्य देना परमावश्यक है । मेरा बार बार प्रख्यात बल्लाल-राज-दरबारमें पण्डिता रही है और इसको कहना है कि जैनियों का तेज हमारी आधुनिक भाषामें