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________________ ४७६ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ८, ९, १० विशेप कान्ति देने वाला है । अतः तत्कृत ग्रन्थोंका हैं। कर्णाटक साहित्य अंगोपांगभूत व्याकरण, छंद, परिचय सुशिक्षितोंको अत्यावश्यक है।" (देखा,कर्णा- अलंकार आदि प्रन्थों के निर्मापक जैनी ही थे। टक साहित्य-परिषत-पत्रिका वर्ष ११, अंक १) अब मैं अपने इस वक्तव्यकों अधिक न बढ़ा कर __ यह बात निश्चित रूपमे कही जा सकती है कि कर्णाटक जैन कवियों के कुछ पोषक तथा प्रोत्साहक कन्नड वाङ्मय अपनी संपूर्ण संस्कृतियोंसे अखिल राजाओं का उल्लेख नीचे करता हूँ :कलासम्पन्न जैनियोंके द्वारा दी गई सुदृढ़ नींव पर ही गगगजा इन राजाओं में अनमानत. ५०० आज भी स्थिर है । 'पंपभारत' सदृश सर्वांगसुंदर ई० में स्थित गद्यग्रन्थकार राजा दुर्विनीत 'पूज्यपाद' महाप्रबंधों तथा 'शब्दमणिदर्पण' तुल्य शास्त्रीय ग्रन्धों आचार्यका शिष्य था और ८८६-९१३का 'एरंयप्प को देखकर किस साहित्याभिमानीकं हृदयमें जैनकवि- प्रसिद्ध कवि तथा हरिवंश आदि ग्रन्थों के लेखक 'गयोंके बारेमें श्रादरबुद्धि उत्पन्न नहीं होगी। एक समय णवर्म' का पोषक रहा है । आज तकके उपलब्ध कसंपूर्ण कर्णाटक जिनधर्म का आवास . (देखा, शा- र्णाटक गद्य ग्रंथों में प्राचीनतर ( सन् ९७८ ) 'चामुसनपद्यमंजरी १४४३)। जैनियों के बाद अनुमानतः ण्डरायपुराण' का लेखक वीरमार्तण्ड 'चामुण्डराय १२०० से १७०० तक लिंगायतोंका प्राधान्य था, अनः गजा गचमल्ल का मंत्री था। इन शतकों में कर्णाटकसाहित्य इनकी हस्तकृति ही रहा गष्टकट - इस वंशके तीसरे कृष्णराना है । १७०० से आज तक ब्राह्मणोंकी प्रधानतामें दो (९३५–५६८ ) ने पोन्न कविको 'कविचक्रवर्ती' की नीन शताब्दियोंसे इस धर्म के कवि साहित्यसेवा कर उपाधि दी थी। रहे हैं । प्राचीन समयमें धर्मोन्नतिके साथ साथ साहि- चालुक्य - इस वंश का गजा अरिकेसरी त्योन्नति का सम्बंध कितना मनोज्ञ है, और इस प्र- 'आदिपंप' कवि का पोषक था तथा तलप (९७३कार वह कितने विशद रूपमे ऐतिहासिक रहस्य को ९८७ ) ने 'रन' को 'कविचक्रवर्ती' की उपाधि दीथी। संबोधित कर रहा है । यह सब बात साहित्यका क्रम- 'जातकतिलक' के रचयिता श्रीधरावार्य बाहवमल बद्ध अभ्यास करने वालोंस छिपी नहीं है। अम्तु; यद्यपि के आश्रित थे और 'सुकुमारचरित्र' का लेखक 'शांतिकर्णाटक भापाका प्रारंभिक काल 'जैनकाल', माध्य- नाथ' लक्ष्मण नप का मंत्री था । 'समयपरीक्षा' मिक काल 'लिंगायतकाल' और वर्तमानकाल 'ब्राह्मण- एवं त्रैलोक्यरक्षामणि स्त्रीत्र' का कर्त्ता वत्सगात्रीय काल' कहलाता है । तथापि लिंगायत तथा वर्तमान जैन ब्राह्मण 'ब्रह्मशिव' आहवमल्लके पत्र तथा विक्रमाकालमें जैनी लोग साहित्य-सेवाको सर्वथा भूले नहीं हैं; दित्यके सहोदर कीर्तिवर्मा का आश्रित था। कटकोक्योंकि इन समयोंमें भी कई जैन प्रन्थ लिखे गये हैं पाध्याय जैन ब्राह्मण 'नागवर्म द्वितीय' जगदेकमल और इस बात को मैं पहले ही स्पष्ट कर चुका हूँ। इ. (११३८-११५० ) का आश्रित रहा । तना ही नहीं, बल्कि लिंगायत तथा ब्राह्मणोंको साहि- हायसलराजा- 'अभिनव पंप' तथा 'कन्ति' प्रथस्यसेवाका मार्ग दिखलाने वाले भी जैन लोग ही थे; म बल्लाल ( ११००-११०६ ) के आस्थान विद्वान् क्योंकि जैनी लोग कर्णाटक-साहित्यसेवाके मूल पुरुष थे। व्यवहारगणित, व्यवहाररत्न, लीलावती, चित्रह
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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