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________________ ३०८ ** अनेकान्त जैन - भूगोलवाद [ ले० - श्री बाबू घासीरामजी जैन एस.एस.सी. प्रोफेसर 'भौतिकशास्त्र' ] [ वर्ष १, किरण ५ Modern Orientalists have found it difficult to dentify these 'Continents' and 'seas' and failing to understand the text, have jumped to the conclusion that the Jains were hopelessly ignorant of geography. -Key of Knowledge (जैनभूगोल में वर्णन किए हुए द्वीप-ममुद्रों का पता लगाना इतना कठिन हो गया है कि आधुनिक विद्वान, शास्त्रों की पूर्ण रूप से न समझ सकने के कारण, इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि जैनाचायों को भूगोल विषय का बिलकुल भी ज्ञान नहीं था ) निस्संदेह इस विद्युत्, वायु और वाष्प के युग में जैनभूगोल का जितना अपवाद हुआ है और उसके कारण से जो जति पहुँची है वह किसी से छिपी नहीं । जब कि समाज के बड़े बड़े पंडितों से भी. प्रकृत विषयका गहरा अभ्यास न होनेके कारण, इस विषय की अनेक शंकाओं का यथेष्ट उत्तर नहीं दिया जाता तो जैनधर्म के साधारण अभ्यासियों की श्रद्धा यदि गमगा जाय तो इसमें आश्चर्य ही क्या है ? कोई तो नासमझी अथवा द्वेषवश अभी तक इस चर्चा की अच्छी मन्त्रौल उड़ाया करते हैं। आज हम केवल इस विषय पर अपने विचार प्रकट करना चाहते हैं कि जैनभूगोलके इस विरोध व अवमानता का सम्भवत' क्या कारण विशेष हो सकता है । विश्व की मूल आकृति तो कदाचिन् अपरिवर्तनीय हो किन्तु उसके भिन्न भिन्न अंगों की आकृति में सर्वा परिवर्तन हुआ करते हैं । ये परिवर्तन कुछ छोटे मोटे परिवर्तन नहीं किन्तु कभी २ भयानक हुआ करते हैं। दाहरणतः भूगर्भशास्त्रियोंको हिमालय पर्वतकी चोटी पर मे पदार्थ उपलब्ध हुए हैं जो समुद्र की तली में रहते हैं। जैसे सीप, शंख, मछलियों के अस्थिपन्जर प्रभृति । अतएव इससे यह सिद्ध हो चुका है कि अब से ३ लाख वर्ष पूर्व हिमालय पर्वत समुद्र के गर्भ में था । स्वर्गीय पंडित गोपालदासजी वरैय्या अपनी "जैनजागरफी” नामक पुस्तक में लिखते हैं "चतुर्थ काल के आदिमें इस श्रार्यखंडमें उपसागर की उत्पत्ति होती है जा क्रमसे चारों तरफको फैल कर श्रार्य खण्ड के बहुभाग को रोक लेता है। वर्तमान क एशिया, योगेप, अफ्रिका, अमेरिका और आस्ट्रेलिया यह पांचों महाद्वीप इसी आर्य्यखंड में हैं । उपसागरने चारों ओर फैलकर ही इनको द्वीपाकार बना दिया है। केवल हिंदुस्तान का ही श्राय्र्यखंड नहीं समझना चाहिये । ** अब से लेकर चतुर्थकाल आदि तककी लगभग वर्ष मंख्या १४३ के आगे ६० शून्य लगाने से बनती है। श्रर्थान् उपसागर की उत्पत्ति से जो भयानक परिवर्तन धरातल पर हुआ उसको इतना लम्बा काल बीत गया, और तब से भी भवतक और छोटे २ परिवर्तन भी हुए ही होंगे । जिस भूमि को यह उपसमुद्र घेरे हुए है वहाँ पहले स्थल था ऐसा पता आधुनिक भू-शास्त्रवेत्ताओंने भी चलाया है जो गौंडवाना लैंड-सिद्धान्त Gondwa
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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