SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 291
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०४ चैत्र, वीरनि०सं०२५५६] प्यारी दाँतन व्यक्तियोंकी जो विचारधाराएँ अभी तक दबी हुई बह और पुकार पुकार कर कह रही थी कि इस शासन में रही थीं वे सब महावीरको वेगमयी सप्तभंगी वाणीके हीनसे हीन समझे जाने वाले प्राणियोंके लिए भी माथ पूर्ण प्रवाहके साथ बह निकलीं । उस समय स्थान, त्राण और उनके उत्थानका प्रयत्न है । इसके जाति-पांति और छूआछूत का जो भयंकर भत हिन्दू सिवाय, महावीर ने अपनी अहिंसामयी देशनाकी जातिके सर पर सवार हो गया था उसे भगवान् महा- घोषणा उस समय की प्रचलित अर्द्ध मागधी भाषा में वीरने दूर भगा कर संतप्त ह्रदय हिन्दुओंको आश्वासन- की-विद्वानों तक महदूद रहने वाली संस्कृत भाषामें वाणी सुनाई और खड़े होकर कहा, 'ठहरो!मूक निर्वाध नहीं। और यह आपकी सर्व हितसाधनकी भावनाकी तथा निरपराध और निरीह पशुओंकी हत्या धर्म नहींहो दूसरी विशेषता थी, जो बहुत रुचिकर तथा उपयोगी मकती । इसी तरह धार्मिक विषयोंमें जाति-पांतिका भेद सिद्ध हुई । और इसीसे आज तक यह कहावत चली भी आगे नहीं सकता। भगवान महावीरकी इस अभय- आती है कि महावीरके उपदेशोंको सभी लोग अपनी वाणीने धार्मिक क्षेत्रमें क्रान्ति उत्पन्न करदी। जनता तब अपनी भाषा में समझ लिया करते थे। लाखों और करोड़ों की संख्यामें एकत्र होकर महावीर इस तरह भगवान महावीर अहिंसाके पूर्ण अव प्रतिवादात्मक अहिंसामयी झडके नीच महावीरको तार और लोकहितकी सभी मूर्ति थे । बाज भी मधुर वाणी सुना करती थी । इसी लिये महावीरकं जैनियों अथवा भगवान महावीरके उपासकोंको उनके ममवसरणका वर्णन जहाँ आया है वहाँ जैनऋषियोंने श्रादर्श पर चलना चाहिये, उनके मिशनको भागे चक्रवर्ती सम्राटके बैठने के स्थानके साथ ही साथ कुत्ते बढाना चाहिये, और उनकी उदारता, दृष्टि-विशालता और बिल्लियों जैसे क्षुद्र प्राणियों के बैठनके स्थानका तथा लोकहित की भावनाको अपनाकर अहिंसा की भी निर्देश किया है। और यह उस समवसरणको विजयपताका सर्वत्र फहरानी चाहिये । संसारमें बाज एक खास विशेषता थी जो महावीर के उदार नथा भी हिमाके प्रचारकी स्त्राम जमरत है। मर्वहितकारी शामनका ज्वलन्त उदाहरण बनी हुई थी *प्यारी दाँतन * कोमल कूर्चिसहिन जब फिरती; आहा ! दाँतन कैसी प्यार्ग; दाँतों पर सुनत्य-मा करती। मुख-विशुद्धि करती है मारी। दन्त-मैल तब चुग चुग हरती; दाँतों को मजबूत बनाती; निर्मल कर सुपुष्टि-रम भरती ।। जिव्हा का मल दूर भगानी ।। मुखस सब दुर्गन्ध बहाती, नीम की हो या हो कीकर की; ईश-भजनके योग्य बनाती। उपयोगी वा काठेतर की। हलका रखती रोग नशाती; साजी तरसे लाई होवे; फिर वह कौन जिसे नहीं भाती? भोपा साफ बनाई होवे॥ (7 ) -'युगबीर'
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy