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अनेकान्त
वर्ष १, किरण श्य ही सुनाई पड़ा करतीथी । यद्यपि अभी तक गीता रहते हैं, इस कारण उनकी व्यवसायात्मक और कार्यके निर्माणका समय निर्विवाद नहीं है तो भी बहुत से अकार्यका निश्चय करने वाली बुद्धि समाधिस्थ अर्थान विद्वानोंका यह कथन है कि गीताका वर्तमानरूपईसासे एक स्थानमें स्थिर नहीं रह सकती।' १२ सौ से ७०० मौ वर्ष पहले तकका होना चाहिये। चैगुण्यविषया वेदा निगण्यो भवार्जन । गीता में वेदोंके क्रियाकाण्ड, यज्ञ आदिके प्रति जो निदोनित्यसत्त्वस्थोनिर्योगक्षेमात्मवान्।।२.१५ प्रतिषाद ध्वनि है मैं उसे यहाँ उद्धृत कर देना चाहता हे अर्जन ! वेद वैगुण्यकी बातोंसे भरे पड़े है. हूँ। जैनधम के अन्यान्य महत्वपूर्ण विषयोंका सूक्ष्म- इस लिय त निबैगण्य अर्थात् त्रिगुणोंसे अतीत, नि। सा प्रारंभ गीताके कई स्थानोंमें देखने में आता है । सत्वस्थ और सुख-दुख आदि द्वंद्वोंसे अलिप्त हो एवं इस समय बड़ी आवश्यकता है कि कुछ निष्पक्ष विद्वान योग-क्षेम आदि स्वार्थों में न पड़कर आत्मनिष्ठ हो। गीता का तुलनात्मक अध्ययन और तुलनात्मक समा- यावानर्थ उदपाने सर्वतः संप्लुतोदके । लोचन करने का प्रयत्न करें । मेरी इच्छा है और यदि तावान्सर्वेष वेदेष ब्राह्मणस्य विजानतः॥२-४६ मुझे समय मिला तो आगामी किसी अंकमें इस विषय
___चारों भर पानी की बाढ़ आ जाने पर कुएँ का पर लिखने का प्रयल भी करूँगा । गीता के वे श्लोक जितना अर्थ या प्रयोजन रहता है, उतना ही प्रयोजन नीचे दिये जाते हैं
मानप्राप्त ब्राह्मणका सब वेदों का रहता है । यामिमा पुष्पिता वाचं प्रवदन्यविपश्चिनः । ते तं भक्तवा स्वर्गलोकं विशालं जीणे पुण्ये मबेदवादरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः।।२-४२ यलोकं विशन्ति । एवं त्रयीधर्म मनप्रपन्ना गनाकामात्मानः स्वर्गपरा जन्मकर्मफलपदाम् । गनं कामकामा लभन्ते ।। क्रियाविशेषपहला भोगैश्वर्यगति प्रति ।।- ४३।। 'उम विशाल स्वर्ग लोकका उपभोग करके, पुण्य भोगेश्चर्यप्रसताना तयापहतचेतसाम् । तय हो जाने पर वे मृत्यु लोकमें आते हैं । इस प्रकार पवसायास्पिकाबुद्धिःसमाधीन विधीयते ।। - ४४ त्रयी धर्म अर्थात् तीनों वेदोंके यज्ञ-याग आदि श्रोत
इन तीनों लोकों का मिल कर एक वाक्य बनता धर्मके पालने वाले और काम्य उपभोगकी इच्छा करने है, जिसका अर्थ यह है
वाले लोगोंको आवागमन प्राप्त होता है।' हे पार्थ ! वेदों के वाक्यों में भले हुए और यह जिस समय भारतवर्षकेधार्मिकक्षेत्रमें उपर्युक्त मनाकहने वाले मूढ़ लोग कि इसके अतिरिक्त दूसरा कुछ वृत्तिका क्रमविकाश हो रहा था, दबी आवाजसे सभी नहीं है, बढ़ा कर कहा करते हैं कि "भनेक प्रकारके पोर अहिंसाकी भावना मलकरही थी; उसी समय भगकोसे ही जन्मरूप फल मिलता है और भोग तथा वान महावीरने-और महात्मा बुद्धने भी साहसपूर्व ऐश्वर्ण्य मिलता है।" स्वर्गके पीछे पड़े हुये वे काम्य क समाजों सथा विद्वानों और कुटुम्बियों तथा रूढियों बुद्धि वाले (लोग), उल्लिखित भाषणकी भोर ही उनके कीपर्वाह न कर हिंसाके विरुद्ध इस दबी हुई प्रतिवादामन माकर्षित हो जाने से, भोग और ऐश्वर्यमें ही रार्क मकमनोवृत्तिमें क्रांति उत्पन्न कर दी। इससे साधारण