________________
अवतारवाद और महावीर
चैत्र, वीरनि०सं०२५५६ ]
दात्मक अथवा एक प्रकार से प्रोटेस्टेन्ट (ProtestAZI धर्म कहें तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी ।
atra - पाण्डवोंकी सम्मिलित शक्ति से जब भारतवर्षका माम्राज्य अत्यन्त समृद्ध तथा शक्तिशाली हो चुका था और उसके वर्तमान अधिकारियोंको अपनी शक्तिका पूर्ण अभिमान होगया था और वे समझने लगे थे कि अब संसारमें उनकी शक्तिका मुकाबला करने वाली दूसरी शक्ति नहीं है तब उनकी इस मनोवृत्तिका साक्षात् प्रमाण उस समय मिला जब कि संधि करने के निमित्त गये हुये श्रीकृष्ण को स्पष्ट शब्दों में यह कह दिया गया कि ‘सूच्यमे न केशव' अर्थात् 'हे केशव, हम सूई के अग्रभाग मात्र भी भूमि देने को तैयार नहीं हैं।' उसी समय श्रीकृष्ण की प्रतिभामयी शक्ति उस अत्याचार के विरुद्ध प्रतिवाद रूप में खड़ी हुई थी । महाभारत आज भी इस बातकी साक्षी दे सकता है कि कौरवोंकी शक्तिको परास्त करने में कृष्ण ने कोई भी बात उठा नहीं रक्खी थी । धर्मके मोटे मोटे और मम सूक्ष्म सिद्धान्तों का उल्लंघन किया गया. युधि
जैसे सत्यवादी राजाको मिथ्याभाषण करनेक नियं बाध्य किया गया, शिम्बंडीको सामने रख अर्जुन
भीष्मकी हत्या कराई गई, सूर्यके अस्त होने पर भी प्राकृतिक सूर्य दिम्बला कर अर्जुन जयद्रथ का वध कराया गया, इत्यादि अनेक विषय पाए जा सकेंगे कि,
साधारण अवस्था में अत्यन्त ही अन्यायपूर्ण क सकते थे। परंतु वहाँ तो ध्येय केवल एकमात्र उस बल शक्तिका दमन ही था, इसलिए ये सारी ही क्रिगायें न्याय, उचित और विधेय समझी गयीं। यद्यपि उस समय श्रीकृष्ण एक शक्तिशाली और प्रभावशाली
राजाके सिवाय और कुछ भी न थे तो भी चूंकि आगे चल कर उन्होंने एक प्रबल शक्तिके प्रति
३०५
वादकी हिरोल अपने हाथमें सँभाली थी इसीलिये उनकी गणना अवतारोंमें की गई। इस अवतारदृष्टिसे ठीक यही अवस्था भगवान महावीर और बुद्धदेवकी भी हुई । वे भी अपनी असाधारण प्रतिभा, प्रतिवादात्मक शक्ति और लोकनेतृत्वके कारण अवतार कहलाये । अन्यथा, उनके अनुयायी उन्हें सिद्धान्ततः किसी एक ईश्वरका अवतार (Incarnation ) नहीं मानते ।
महाभारत युद्ध के बाद जब भारतवर्ष में कर्मकांडका प्राबल्य था, तब चारों ओर यज्ञोंकी धूम मची हुई थी, जिधर देखो उधर रक्त पातको लिये हुए बलिदान ही बलिदान दिखलाई देता था और वह भी निरीह मूक पशुश्री का। जिसके पास थोड़ीसी भी शक्ति हुई, थोड़ासा भी धन हुआ, थोड़ा सा भी जनबल हुआ, तो वह भी अपना जीवन नभी कृतार्थ समझना था जब कि वह कोई बड़ा सा मेध यज्ञ करके उसमें मैकड़ों और हजारों पशुको बलि दे दे ।
-
जिस समय महर्षि वेदव्यासने महाभारतका सर्वप्रथम रूप "जय" लिखना प्रारंभ किया उस समर्थ भी इस घोर हिंसा के विरुद्ध एक क्षीण सी प्रतिबादध्वनि उनकी लेवनी, गीता और कई उपनिषदों में भी पायी जाती है। परन्तु संभव है उस समय के समाज के भयम अथवा अन्य विद्वानों के प्रतिवाद के भगम में उस प्रतिवादको निश्चित रूप न दे सके हों, तो भी यह निश्चित है कि उस प्रतिवादध्वनि की एक सीमा-मी मधुर
मंकार सुनाई देने लगी थी। इसी ग्रंथको जब 'महाभारत' का रूप प्राप्त हुआ तब तो वह ला श्रावाच यथष्ट रूपमें तेज हो चुकी थी, यहाँ तक कि उसकी प्रतिध्वनि सर्वत्र नहीं तो बहुत से स्थानों में अब
• कोपनिषद १,२: ईयाप्य, ६, १२ कठोपनिया २,५: