________________
१२६
अनेकान्त
[वर्ष १, किरण २ वहुत प्रसन्न हुआ। इस नई बुद्धिसे पुराने विषयों
सर्वाग पूर्ण बनानेमें आपका परिश्रम प्रशंसनीय का प्रतिपादन किया जाय तो उनमें पुनः प्राण है। मैं इसकी हृदयसे उन्नति चाहता हूँ।" मंचार हो और वे सचमुच इह-अमुत्र-उपयोगी हो जहाँ अब प्रायः उभय बाधक हो रहे हैं।
१४ पंकैलाशचन्दनी शास्त्री, बनारसआशा है कि आपके अगले अंक सब इसी ऊँची
जिसकी प्रथम किरण इतनी मधुर एवं न केवल कोटिके निकलते रहेंगे।"
दर्शनप्रिय किन्तु चित्तप्रिय भी है उसका भविष्य ११-सेठ पद्मराजजी जैन रानी वाले महामन्त्री
कितना निर्मल एवं आशाप्रिय होगा यह सोच हिन्दमहासभा
कर हृदय गद्गद् होने लगा । प्रथम कवर उलटा 'अनेकान्त' की पहिली किरण बहुत ही रुचिकर
और भगवान महावीरके निःक्रमण कल्याणक पर हुई है। उसमें के दो एक लेख बहुत ही महत्व
दृष्टि पड़ी । कितनी सुन्दर भव्य एवं वीतराग पूर्ण और हृदयग्राही हैं। ...... अछूतों सम्बन्धी
मूर्ति थी-यह लेखनी लिखनको असमर्थ है । पहली एक कविता बहुत ही अच्छी हुई है ।
आँखोमें आनन्दाश्रु उमड़े आ रहे थे। सचमुच उसकारूपक बड़ा ही हृदयग्राही और बुद्धिमत्ताक
आज तक महावीर भगवान की इतनी दिव्य तेजोसाथ चित्रित किया गया है।"
मय समचतुरस्रसंस्थानयुक्त चित्रपटके दर्शनका
मौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। उस दिनसे मामायिक १२ धर्मरत्न पं. दीपचन्दनी वर्णी
में वही वीतराग मूर्ति मेरे ध्यानकी अवलम्बन वन 'अनेकान्त' के दर्शन हुए, उमे मैंने मननपूर्वक
गई है । आपका तथा पं० सुखलालजीका लेख कई बार पढ़ा, पढ़ कर आनन्द हुश्रा अनेकान्त
बहुत महत्व एवं गवेषणापूर्ण हैं।" पर जो लेग्ब लिग्वे गार हैं वे बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। विवादग्रस्त झगड़ाल विषय नहीं लिए गये हैं
१५ पं. हीरालालजी, लाडन-- और यही नीति इसकी रक्खी गई है इसम ही
"अनेकान्त पत्र बहुत हीअच्छा है । इसके संपादक विदित होता है कि यह 'अनकान्त' द्वितीया के
श्रीमान् बा० जुगलकिशोरजीकी योग्यतासे मैं चंद्रमावन उन्नत होता हुआ पूर्ण चंद्रमावन् अनं
परिचित हू । वे एक जैनसमाजकी वीर आत्मा, कान्तके सिद्धान्तका प्रकाश करके संसारसे मिथ्यै
साहित्यखोजी, परिश्रमी व मानवसमाजके सच्चे कान्तरूपी अन्धकारको हटानेमें सफल प्रयत्न
रत्न हैं।" होगा, हम अन्तरंगसे इसकी उन्नति चाहते हैं और १६ श्री० अर्जुनलाल जी 'वीर' मैनेजर श्री.
यथाशक्ति इसके प्रचारका प्रयत्न भी करेंगे।" के०कु०ब्रह्मचर्याश्रम कुन्थलगिरि१३ पं० के० भुजबलीजी शास्त्री, आरा- 'अनेकान्त' पढ़ कर अत्यानन्द हुआ। इसमें सार
"पत्र बहुत उत्तम एवं सराहनीय है। निःसन्देह । गर्भित एवं मधुर लेखों का समुच्चय है । भगवान जैन समाजमें यह एक सर्वाङ्ग सुन्दर उच्चकोटिका महावीर-जिनदीक्षाका चित्र बहुत मोहक और साहित्य तथा ऐतिहासिक पत्र सिद्ध होगा । इस अच्छा है । सभी लेख-कविताएँ उत्तन हैं । यह