SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६] अनेकान्त पर लोकमत __सर्व जैन साहित्यबृद्धिका साधन है । इस अपूर्व श्रेष्ठ हैं । आप अपने इन दोनों सुविधानों के लिये कार्य के लिए हृदय से अभिनन्दन है।" समाज के धन्यवादभाजन हैं।" १७ बा• कृष्णलालजी वर्मा, बम्बई- १६ पं० लोकनाथजो शास्त्री, मडबिद्री'जैनहितेषी' के घार निद्राग्रस्त हो जाने के बाद __ 'अनेकान्त' के बारेमें क्या लिखें, पत्र तो मागविचारक समाजको एक ऐसे पत्रकी आवश्यकता सुन्दर है । सच्चे दिलस विचार कीजिये तो आप थी। वह आवश्यकता आपन परी की इसके लिए का परिश्रम प्रशंसनीय है । इसका 'अनेकान्त' या आपको धन्यवाद है...लेखोंमें प० सुखलालजीका 'विश्वतत्वप्रकाशक' अन्वयर्थ नाम है तथा महावीर लेख सर्वोत्कृष्ट है और नवीन दिशा बताने वाला है। स्वामीका दैगम्बरी दीक्षा चित्र भी अत्यन्त भक्ति'भगवान महावीर और उनका समय' वाला लेख उत्पादक तथा मनोरंजक है । आपका ऐतिहामिक बहुत ही लम्बा और थका देने वाला है। अगर तीन दृष्टिम लिग्विन महावीरचरित्र' 'मननीय है। अन्त चार अंकोंमें प्रकाशित होता तो अच्छाथा । दूमर में इतना ही निवेदन है कि जिनोपदिष्ट अनकान्त लेख भी बुरे नहीं हैं। ......कविताओं में 'नीच तत्वोंका प्रकाशन करतहुए चिरकाल जीविन रहे।" २० पं० कमलकुमारजी, गनाऔर अछूत' गहरी सहानुभूति और भावावेगसे 'अनकान्त' का प्रथमांक बड़ा ही अच्छा है और लिखी गई है......। मैं इस पत्रका स्वागत करता छपाई मफाई भी मनमोहक है । पत्रके सर्वसुन्दर हूं। मुझे आशा है यह खूब फलेगा फलेगा। बनानमें मम्पादक महादयनं कोई बात उठा नहीं १८ श्री भगवन्त गणपति गोयलीय,जबलपुर रक्खी । ......... मेरी जीवनी में तो यह " 'अनेकान्त' मिला । ऐसे एक पत्रकी समाजको सर्वप्रथम मौका है कि ऐसा सर्वाङ्ग सुन्दर अङ्क बड़ी आवश्यकता थी । समाजके मस्तिष्कको इम । दग्वन में आया । पत्रका प्रत्येक पृष्ठ पठनीय एवं से पर्याप्त धार्मिक तथा साहित्यिक पुष्टि मिलेगी। विचारणीय है । जगह २ पर मम्पादक द्वारा दिय आश्रम के संग मंग आपकी यह पत्र-योजना भी गय नोट सम्पादक महोदयकी बुद्धिमत्ता एवं पत्र अपने ढंगकी अनूठी है । मैं समन्तभद्राश्रम और का गौरवता प्रकट करते हैं । पत्रमें अनेकांत सत्सूर्य 'अनेकान्त' की सफलता का एकान्त इच्छुक हूँ। एवं महावीर जिनदीक्षाका चित्र बड़ीही सुन्दरता 'अनेकान्त' के सभी गद्यलेख अच्छे हैं। ...... म चित्रित किये गये हैं । पत्र के पिछले पृष्ठ पर पद्य-साहित्य उसके प्रथमांकक योग्य नहीं है। लमप्राय जैनप्रन्थोंकी खोज नामकी तीसरा विज्ञप्ति ऐसा जान पड़ता है कि इन पत्रों में प्रकाशित होने भी सराहनीय है। इससे भविष्य में जैन ममाज के लिये कविताएँ स्वयं लजित और सशंकित हैं। का भारी उद्धार होने की सम्भावना है।" 'अनेकान्त' जिज्ञासुत्रोंका स्थायी साहित्य है अतः २१ पं० बसन्तलालजी चौधरी, इटावाउसकी सिलाई अबकी बारकी सिलाईसे अच्छी 'अनकान्त' मिला, हाथमें लेते ही चित्त आनन्दहोनी चाहिये, मुखपृष्ठ, कागज और छपाई सभी विह्वल होगया । श्राकार,प्रकार, रूप,रंग, सौन्दर्य,
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy