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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण २ छपाई, सफाई, सभी में अपने ढंगका आला दर्जे हमको ही नहीं बल्कि हमारी भावी संततिको रहा । टाइटिलके ब्लाककी कल्पना “अनेकान्त" यथेष्ट लाभ होता रहेगा।" कं नामानुकूल अपूर्व ही रही। भगवान महावीर २३ मुनि कल्याणविजयजी, गड़ा बालोतराकी दीक्षावाला चित्र भी बड़ा ही अपर्व रहा। ऐसा
"आश्रमके उद्देश्य और पत्रकी नीतिमे मैं सहमत नयनाभिगम भावपूर्ण चित्र कि, जिसे नेत्रों के
हूँ। इन दोनोंकी सहायता करनेमें जहाँ तक होगा सामने मे हटाने को तवियत नहीं चाहती ।
मैं उद्यत रहूंगा । मुख्नारजी! आपका आशय और देखते देखन चित्तको वैराग्य और भक्ति के रमम
लगन स्तुत्य है इसमें कोई शक नहीं है, पर साम्प्रआप्लावित कर देता है। सम्पादन भी उसका
दायिक रंगम रंगा हुआ जैनममाज आपके इम ख्लब सोच समझ कर विलक्षण पाण्डित्यके साथ
प्रयत्नकी कहाँ तक क़दर करेगा इमका ठीक पता हुआ है। फ़िज़लकी और भर्ती की एक भी बात
नहीं है।......आपका महावीर समय विषयक लेख इधरसे उधर नहीं आने पाई। वीरसंवत्-सम्बन्धी
भी मैंने पढ़ा है आपकी विचारमरणी भी ठीक है। लेख छोटा होने पर भी बड़े माकका है। यह लेग्य उन विद्वानों को जो इस विपय में काफी तौर में
__ "जैनजीवन" सशंकिन हैं स्थिर विचार करनेमें काफ़ी सहायता जैनसमाज के सुधार तथा धर्म की उन्नतिमे दंगा। यथार्थमें यह पत्र आजके जमानेकी माँग विघ्नरूप होने वाली प्रवृतियों और उनको दूर
को अनुभव करके ही निकाला गया है।" करने के सतर्क उपायों को निर्भयता के साथ २० ला- कुन्थदासजी जैन रईस, बाराबकी- प्रकाशित करने वाले गुजराती-हिन्दी पाक्षिक पत्र
"रुढथात्मक धर्माभिमानदग्ध,मतप्राय जैनसमाज 'जैनजीवन' के आज ही प्राहक बनो । षार्षिक मूल्य में जो अत्यंत उपयोगी कार्य (आपन) अपने कर
तीन रुपये।
व्यवस्थापक “जैनजीवन", पना । कमलो द्वारा संपादित करनेका सल्माहस किया है वह अति प्रशंसनीय है । आशा है और श्रीमजिक संस्कृत-प्राकृत अनोखे ग्रंथ न्द्रसे प्रार्थना है कि सुधारके कण्टकाकीर्ण विषम प्रमाणमीमांसा पृ. सं. १२८ रु १ पथको उल्लंघन करता हुआ आपका यह यज्ञ सचित्र तत्वार्थसूत्र सभाष्य पृ स. २४६ रु.२॥ संसारव्यापि प्राणियोंका तम विच्छेद कर अनेकांत स्याद्वादमंजरी पृ. स. ३१२ रु. २ ज्योतिका विकाश करें।
स्याद्वादरत्नाकर पृ.सं. ६६० भाग १-२-३-४ रु.॥ ___ यद्यपि मैं आपसे पूर्व में यह प्रार्थना कर चुकाहूँ सूयगडं (सूत्रकृतांग) सनियुक्ति पृ.सं. १५२ रु १ कि मैं एक लघु प्राणी हूँ तथापि मोह वश स्वार्थ प्राकृत व्याकरण पृ. सं. २४४ रु २ साधनार्थ १००) की तुच्छ भेट आपकी संस्थाको छपते हैं-स्याद्वादरत्नाकर, औपपातिक सूत्र. देता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि इसके बदलेमें
भाईतमत-प्रभाकर कार्यालय "अनेकान्त" का सदैव दर्शन होता रहै, जिससे
भवानी पेठ, पुना नं०२