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________________ १२ अनेकान्त [वर्ष १, किरण ३ परंतु उसका अर्थ यहाँ पर यदि 'चरण' भी कर लिया 'अकलंकदेवका मार्ग दुष्प्राप्य है और वह मुझे पुण्योजाय तो भी, यह एक अलंकृत कथन होनसे, यह ला- दयसे प्राप्त हुआ है, मैंने अनन्तवीर्य आचार्यकी उक्तियों जिमी नहीं आता कि पर्वार्धमें प्रयक्त हाए 'पद' का अर्थ पर से-उनकी सिद्धिविनिश्चयादि टीकाओंके कथन ___ परसे-उसका अच्छी तरहसे अभ्यास किया है और भी 'चरण' ही किया जाय । अलंकृत भाषामें एक ही सैंकडों बार उसकी विवेचना की है। उनका अथवा उस शब्दके दो जगह प्रयुक्त होने पर एक जगह कुछ और मार्गका बोध मुझे सिद्धि के का देने वाला होवे'दूसरी जगह कुछ अर्थ होता है,और यही उसकी खुवी त्रैलोक्योदरवर्तिवस्तुविषयज्ञानप्रभावोदयोहोती है। और ऐसाही तब यहाँ भी जान लेना चाहिये। दुःभापोप्यकलंकदेवसरणिः प्राप्तोऽत्र पुण्योदयात् । __ अबमें कुछ विशेष प्रमाणों द्वारा इस बातको और स्वभ्यस्तश्च विवेचितश्चशतशः सोऽनन्तवीर्योक्तितोभी स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि 'कि प्रभाचन्द्र अकलंक भयान्मे नयनीतिदत्तमनसस्तद्बोधसिद्धिपदः ॥ के शिष्य नहीं थे और न उनके समकालीन थे':- इससे यह साफ़ जाना जाता है कि प्रभाचंद्र अक (१) अकलंकदेवके सिद्धिविनिश्चयादि ग्रंथों के प्रधान लंकदेवके शिष्य तो क्या होते उनके समयमें भी नहीं टीकाकार 'अनन्तवीर्य' आचार्य हाए हैं। प्रभाचन्दने हुए हैं, बल्कि उस वक्त हुए हैं जब कि अकलंकदेवके मार्गका ज्ञान प्राप्त करना भी एक तरहसे दुष्कर हो न्यायकुमुदचंद्रके मंगलाचरण में उन्हें भी अकलंकदेव गया था और वह मार्ग उनकं ग्रन्थोंकी अनन्तवीर्य के अनन्तर नमस्कार किया है । यथाः आचार्यकृत टीकाओं परसे ही उन्हें प्राप्त हो सका था। सिद्धिपदं प्रकटिताखिलवस्तुतत्त्व (३) न्यायकुमुदचन्द्रके अंतमें एक प्रशस्ति x भी मानन्दमन्दिरमशेषगुणैकपात्रं । लगी हुई है, जो इस प्रकार है:श्रीमजिनेन्द्रमकलंकमनन्तवीर्य ___* यहां भी यह 'सिद्धि' शब्दका प्रयोग 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथ मानम्य लक्षणपदं प्रवरं प्रवक्ष्ये ॥ १॥ और उसकी टीकाके स्मरणको लिये हुए है। इममे मालम होता है कि यदि प्रभाचंद्र वद अक- - यह प्रशस्ति ग्रन्थकी एक अत्यन्त जीर्ण शीर्ण-प्रति पर से लंकके शिष्य होते तो वे उनके प्रथोंके टीकाकार अन- उतारी गई है, जिसका दर्शन-सौभाग्य मुझे गत वर्ष महमदाबादमें न्तवीर्य का इस तरह पर स्तवन न करते। इसमें ५०बेचरदास तथा मुखलालजीके पास प्राप्त हुआ था और उन्हें वह अनन्तवीर्यका 'सिद्धिप्रदं विशेषण उनकी सिद्धिविनि- प्रति १० नाथूरामजी प्रेमी द्वारा प्राप्त हुई थी। ग्रन्थके दो पत्रों के श्रय-टीका को ध्वनित करता है। परस्पर चिपक जानेसे प्रशस्ति बहुत कुछ भस्पष्ट हो रही थी और (२) प्रभाचंद्र, न्यायकुमुदचंद्रके पाँचवें परिच्छेदके पूरी तौरमं पढ़ी नहीं जाती थी । इसीसे प्रेमीजीने भी एक बार, शुरूमें, निम्न पाद्वारा यह भी सूचित करते हैं कि जब कि मैं रनकरगडश्रावकाचार की प्रस्तावना लिख रहा था, - मेरे प्रशस्ति मंगाने पर उसे न भेज कर एसा ही लिख दिया xश्रीवादिराजसरि भी न्यायविनिय-विक्रगाके निन्न वाक्यों द्वाग था। प्रस्तुः सूक्ष्मदर्शक माईग्लास कौरहकी सहायतासे कई दिन प्रकट करते हैं कि-अकलकवाड़मयकी अगाध भूमिमें संनिहित गूढ परिश्रम करने पर यह प्रशस्ति मुशकिलसे की गई है। बादको भारा अर्थको अनन्तवीर्यकी वाणीरूपी दीपशिखा पद पद पर अच्छी तरहसे के जनसिद्धान्त-भवनसे इस ग्रन्थकी प्रशस्ति मगाई गई : उसमें और व्यक्त करती है: कोई खास विशेषता नहीं है, सिर्फ दूसरे पद्यमें 'बृहस्पति' के बाद गूढ़मर्थमकलावाङ्मयागाधभूमिनिहितं तदर्थिनां । 'प्रभृति पाठ अधिक है जो ठीक जान पड़ता है,और 'न्यायांभोधिनिबन्धनः' व्यजयत्यलमनन्तवीर्यवाकू दीपवर्तिनिश पदे पदे ॥ ३॥ की जगह 'न्यायाभोनिधिमंथनः' तथा 'वरः' की जगह 'पर: पाठ है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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