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________________ माघ, वीर नि०सं०२४५६] पुरानी बातोंकी खोज बोधो मे न तथाविधोस्ति न सरस्वत्या प्रदत्तो वरः हुई थी, और वे अनन्तवीर्य भी उनके समयमें मौजूद साहाय्यं च न कम्यचिदचनतोप्यस्ति प्रबन्योदये। नहीं थे । यदि मौजूद होते तो प्रभाचंद्र यह कभी न तत्पुण्यं जिननायभक्तिजनितं येनायमन्यद्भुतः लिखते कि उन्हें इस प्रबन्धके रचनमें वचनमे किमीकी संजातो निखिलार्थवोधनिलयः साधुप्रसात्परः।।१ भी सहायता प्राप्त नहीं हुई है। कल्याणावसथः सवर्णरचितो विद्याधरैः सवित- इस संपूर्ण विवेचन और स्पष्टीकरण परम इम स्तुगांगों विधपियो व., विधश्रीको गिरीद्रोपमः विपयमें कोई संदेह नहीं रहता कि प्रभाचंद्र अकलंक भ्राम्यद्भिर्नर हम्पनि [प्रनिभिःप्राप्तं यदीयं पदं शिष्य नहींथं और न उनके ममकालीन थे । अतः जिन न्यायांमाधिनिबन्धनश्चिम्मसोस्थेयात्मबंधोवरः।।२ विद्वानोंका इस विषयका भ्रमहा उन्हें उसका मंशोधन मूलं यस्य समस्तवस्तुविषयं ज्ञानं परं निर्मलं कर डालना चाहिये। बुनं संव्यवहारसिद्धमखिलं संवादिमानं महत् । शाखाः सर्वनयाः प्रपत्रनिवहो निक्षेपमालाऽमला न्यायकुमुदचन्द्र की टीका-प्रशस्ति जीयाज्जैनमताहिपोत्रफलितःस्वर्गादिभिःसत्फलैः३ । ___ प्रभाचंद्रके न्यायकुमुदचन्द्र' पर कोई वृत्ति (टीका) भव्यांभोजदिवाकरो गुणनिधिर्योभज्जगदभषणः भी लिखी गई है, यह बात अभी तक मालूम नहीं थी। सिद्धांतादिसमस्तशास्त्र जलधि:श्रीपद्मनंदिमभुः। तच्छिद्यादकलंकमागनिरतात्सन्न्यायमागोखिलः नोटमें उल्लेख किया गया है उससे उसका भी पता 3. परन्तु न्यायकुमुदचंद्रकी जिस जीर्णशीर्णप्रतिका पिछले सव्यक्तोऽनपमप्रमेयरचितो जातःप्रभाचद्रतः॥४ चलता है। उसमें न्यायकुमुदचन्द्रकी उक्त प्रशस्ति के अभिभूयनिजविपक्षनिखिलमतोद्योतनागुणांभोधिः बाद वत्तिकी प्रशस्ति भी दी हुई है, जो आराकी प्रति सविता जयतु जिनेंद्रः शुभप्रवधः प्रभाचद्रः ॥५॥ में नहीं है। यह प्रशस्ति और भी ज्यादा खराब हालत इति प्रभाचंद्रविरचिते न्यायकुमुदचंद्रे ल- में पाई गई, पत्रोंके चिपकनका सबसे ज्यादा असर घीयस्त्रयालंकारे सप्तमः परिच्छेदः समाप्तः ॥ छ॥ इसी पर पड़ा और इस लिये इसके कितने ही अक्षर इसके पहले ही पथमें प्रभाचंदाचार्यन यह सचित तो बिलकुल ही उड गये है, जो किसी तरह भी पढ़े किया है कि 'उन्हें इस भाष्य प्रन्थके रचनमें वचनम- नहीं जासके-वे खाली स्थानके सिवाय पत्र पर अपने मौखिक रूपसे-किसीकी भी सहायता नहीं मिली है, अस्तित्वका और कोई चिन्ह छोड़ ही नहीं गये ! फिर और चौथे पद्य में उन्होंने अपनेको 'पद्मनन्दि आचार्य भी प्रयत्न करने पर यह प्रशम्ति बहुत कुछ पढ़ी जा का शिष्य' तथा 'अकलंकदेवके मार्ग निरत' बतलाया मकी है, और वह इस प्रकार है:है। इससे यह साफ़ जाना जाता है कि प्रभाचंद्र अक- "श्रीनंदिसंघकुलमंदिररत्नदीप: लंक देवके शिष्य नहीं थे और न उनके समकालीन; सिद्धांतमूवतिलको "नंदिनामा बल्कि वे उनके एक मार्गानुयायी थे, जिम मार्गकी चडामणिप्रभृतिसर्वनिमित्तवेदी प्राप्ति, पूर्व कथनानुसार, उन्हें अनंतवीर्यकी उक्तियोंमे चूडामणिर्भवनिमित्त विदा बभूव ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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