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________________ माघ, वीर नि० सं०२४५६] परानो बातोंकी खोज १३१ न्यायतीर्थ पं० गजाधरलालजी ने , 'तत्वार्थराज मणिक्यनन्दि-पदमप्रतिम-प्रबोध वार्तिक' की प्रस्तावनामें भी इस श्लोकको दिया है और न्याख्याय बोधनिधिरेप पुनः प्रबन्धः। प्रेमीजीके कथनका बिलकुल अनुसरण करते हुए इस प्रारभ्पते सकलसिद्धिविधौ समर्थे श्लोकके साथ वाले उनके उक्त 'माणिक्यनन्दि' आदि मूले प्रकाशितजगत्त्रयवस्तुमार्थे ।। ३ ।। वाक्य का अनुवाद भी संस्कृतमें दे दिया है । और इस -न्यायकुमुदचन्द्र । तरह पर इस कथनको पूर्ण रीतिस अपनाया है। इन दोनो पयोंमें माणिक्यनन्दीक जिम 'पद'का इससे मालूम होता है कि इस कथनका एकमात्र व्याख्याका उल्लेख है वह उनका परीक्षामुग्य' शाम्ब आधार उक्त श्लोक है। है । 'पद' के निखिलार्थगोचरं, शिष्यप्रबोधपदं, ___ श्रीयुत के०बी० पाठक ने भी दिगम्बर जैनमाहित्य अप्रतिमप्रबोध आदि जो विशेषण दिये गये हैं वे में कुमारिलका स्थान' नामक अपन लेग्वमें, प्रभाचंद्रका मब भी इसी बातके द्योतक हैं। प्रेमी जी ने भी अपने अकलंकका शिष्य बतलाया है, उसका भी प्राधार गा- विद्यानन्द वाले लग्यमें, दूसरे पद्यको उद्धन करते हुए लबन यही श्लोक जान पड़ता है। परंतु इम श्लोक में 'पद'का यही आशय दिया है-लिखा है “पदकी प्रयक्त हुए 'प्राप्याकलंकपट'मानों पर शिकलंक अर्थात परीक्षामुख ग्रंथ की" और इमम 'पदं' का स्पष्ट देवकं चरणोंके समीप बैठकर'जात्राशय निकाला जाता आशय शास्त्र, वाङ्मय अथवा वाक्यममूह है, इसमें है वह उसका आशय कदापि नहीं है। यहाँ 'प' का कुछ भी संदह नहीं है। अतः उम श्लोकमें प्रयक्त हए अर्थ 'चरण'नहीं किन्तु वाक्य, वाड़मय, शास्त्र अथवा 'अकलंक पदं का श्राशय है अकलंक-वादमय । उसका शब्दसमूह है, और इस अर्थ में भी 'पद' शब्द 'समम्तविषयं विशंपण भी इसी बातका द्योतक है। व्यवहृत होता है; जैसा कि हेमचन्द्राचार्य के निम्न वाक्य उसमें कहा गया है कि 'अकलंकदवकं समस्त-विपयक से प्रकट है: वाड़मय को प्राप्त करके कोई श्रमाधारण बांधकी प्राप्ति पदं स्थाने विभक्त.चन्ते शब्दवाक्यबस्तुनाः ।। त हुई है जिसके प्रमादम उनके शारकी व्याख्या की जाती है। इसके बाद श्लोककं उत्तरार्धमें गणधरदेवका उदाह. खुद प्रभाचंदने उक्त श्लोकक दूमरं चरणमें ग्ण देते हुए यह उत्प्रेक्षा की गई है कि क्या जिनेन्द्रदेव "व्याग्व्यायने तत्पदं" कह कर 'पद' शब्दका इमी के पदरी प्रभावको प्राप्त करके गणधरदेव उनके वचनकी अर्थमें व्यवहार किया है और अन्यत्र भी उनका एमाही व्याख्या करनमें ममर्थ नहीं होते हैं ? जरूर होते हैं। प्रयोग पाया जाता है, जिसके दो नमूने इस प्रकार हैं:- जान पड़ता है इम उत्तरार्ध में प्रयुक्त हुए 'पद' शब्दक गंभीरं निखिलार्थगोचरमलं शिष्यप्रबोधप्रदं अर्थभ्रम में पड़कर ही अकलंकदेवके चरणों मीप यद्वयक्तं पदमद्विनीयमखिलं माणिक्यनंदिप्रभाः। बैठकर ज्ञान प्राप्त करनेकी कल्पना की गई है । अन्यथा, तयाख्यातमदो यथावगमतः किंचिन्मया शतः उसकी कहीं से भी उपलब्धि और मिद्धि नहीं होनी । स्थेयाच्छुद्धधियां मनोरतिगृहे चन्द्रार्कतारावधि ॥ यद्यपि इस उत्तरार्धमें प्रयुक्त हुए 'पद'शब्दका अर्थ भी -प्रमेयकमलमानगड। वाङ्मय होता है और उसमें कोई विरोध नहीं आना।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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