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अनेकान्त
अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ३
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पुरानी बातों की खोज ।
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पास उन्होंने विद्याध्ययन किया होगा और पद्मनन्दि प्रभाचन्द्र अकलंकके शिष्य नहीं थे तथा रत्ननन्दि उनके दीक्षागुरु होंगे या उनके पास भी और न समकालीन
उन्होंने विद्या सीखी होगी।" 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' और 'न्यायकुमुदचन्द्र' x इसके बाद नीचे लिख दो श्लोक उद्धृत किये हैं:के कतो प्रभाचन्द्राचार्य की बाबत कहा जाता है कि वे
गुरुः श्रीनन्दिमाणिक्यो नन्दिताशेषमजनः । 'तत्वार्थ-राजवार्तिक' तथा 'लघीयस्त्रय' आदि ग्रंथों
नन्दताद दुरितकान्तरजो 'जैनमतार्गावः ॥३॥ के रचयिता भट्टाकलंकदेवके शिष्य थे-अकलंकदेवके श्रीपद्मनन्दिसिद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः। चरणों के समीप बैठकर उन्होंने ज्ञान सम्पादन किया
प्रभाचन्द्रश्चिाजीयाद्रत्नदिपद स्तः ॥४॥ था और इसलिये अकलंकदेव उनके विद्यागुरु थे।
-देखो, जैनहितैषी भाग का अंक वां । चुनाँचे सुहृद्वर पं० नाथूरामजी प्रेमी 'भट्टाकलंकदेव' इन पद्योंसे पहले दो पद्यों और न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रशस्तिको नामक अपने निबन्धमें * लिखते हैं :
देखते हुए, यह दोनों श्लोक अपने साहित्य और कथनशैली पर मे __“ माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द और प्रभाचन्द्र ये प्रभाचन्द्र के मालूम नहीं होते, बल्कि प्रमेयकमलमार्तगड पर टीकातीनों विद्वान अकलंकदेवके समकालीन हैं । इनमें टिप्पणी लिखने वाले किसी दूसरे विद्वानके जान पड़ते हैं । इस ग्रंथ पर से प्रभाचन्द्र तो अपने न्यायकुमुदचन्द्रोदयके प्रथम कोई संस्कृत टीका लिखी गई है, यह बात पहले परिच्छेद के अन्त अध्यायमें निम्नलिखित श्लोकसे यह प्रकट करते हैं में दिय हुए प्रभाचन्द्र के — मिदं सर्वजनप्रबोधजनन ' नामक पद्य की कि उन्होंने अकलंकदेवके चरणों के समीप बैठ कर टीका से पाई जाती है, जो गलती से प्रमेयकमलमार्तण्ड की मुद्रित ज्ञान प्राप्त किया था।
प्रति में शामिल हो गई है । और शायद इस टीका पर मे ही के. बोधः कोग्यसमः समस्तविषयं प्राप्याकलई पदं वी० पाठक ने इस पद्य को मगिाक्यनन्दीका समझ लिया है और जातस्तेन समस्तवस्तुविषयं व्याख्यायते तत्पदं। इसीलिये अपने 'कुमारिल और भर्तृहरि' नामक निबन्धमें यह लिखने
की भूल की है कि माणिक्यनन्दीने विद्यानन्दका उल्लेख किया है; किं न श्रीगणभृजनेन्द्रपदतः प्राप्तमभावः स्वयं
क्योंकि इस पद्यमें विद्यानन्दका उल्लेख है। परन्तु यह पद्य माणिक्यव्याख्यात्यप्रतिमं वचोजिनपतेःसवात्मभाषात्मकम्" की परीक्षामुख' सूत्रका नहीं है जिसका प्रमेयकमलमार्तगडभाष्य
विद्यानन्द-विषयक एक दूसरे लेम्बमें भी आपनं है। बल्कि प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्य परिच्छेदोंके अन्तमें दिये पद्योंके इस श्लोकको उद्धृत करते हुए ऐसा ही भाव व्यक्त सदृश प्रभाचन्द्र का ही पद्य है । प्रस्तुः पाठक महाशयकी इस भूलका किया है और साथ ही उसके एक फुटनोटमें लिखा है- अनुसरणा पं नाथूरामजी प्रेमी और गालबन तात्या नेमिनाथ पांगल ___प्रभाचन्द्रने प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्तमें निम्न ने भी विद्यानन्द-विषयक अपने अपने लेखोंमें किया है । हां, इतना श्लोकों से पद्मनन्दि और रत्ननन्दि को भी अपना गुरु और भी जान लेना चाहिये कि,बौथेन के श्लोकमें जिन रत्ननन्दीका बतलाया है। इससे मालूम होता है कि अकलंक के उल्लेख है व माणिक्यनन्दी से भिन्न कोई दूसरे नहीं जान पड़ते ।
* देखो, जैनहितैषी भाग ११, अंक ने० ७---. माणिक्यनन्दी का ही पर्यायनाम यह रत्ननन्दी है।