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________________ वैशाख,ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] पत्रका एक अंश पत्र का एक अंश अध्यापक कैसे पहुँचे श्रीयत पं०धन्यकुमारजी जैन, उपसंपादक 'विशा- वैज्ञानिक रीतिसे जैनधर्मको शिक्षा दी जानी चा" भारत' कलकत्ता, अपने ४ मई सन १९३० के पत्र हिए । व्यावहारिक ढंगसे अभ्यास कराना चाहिए । में. एक पाठशालाका उल्लेख करके अध्यापकादि-विषय कितने ही भावुक हृदय लेखक होंगे, जिनकीभाषा में कुछ चर्चा करते हुए- अथवा यो कहिये कि से उसके भाव तक पहुँचना, साधारण तो क्या अच्छे रमकं बहानं तत्सम्बंधी अपने हद्गत विचागेको य- पढ़े-लिखे लोगों तक को कठिन पड़ता है। भीतर वे किचित व्यक्त करते हुए-थोड़ीमी अलंकृत भाषा में घम नहीं सकते, या घुसना चाहते ही नहीं । दर्पण के जिम्बने हैं : मीधी ओर न देखकर उलटी श्रोर देखते हैं, और फिर "अध्यापक मामूली हैं। होने चाहिएं लड़कोंके उममें अपना प्रतिबिम्ब न दीग्वने पर उसे नष्ट का हृदय तक पहुँचने वाले । सुधारप्रिय ही नहीं, बल्कि डालते हैं। सामने खड़ा हुआ दूसरा व्यक्ति-सम्भव जो अपने छात्रों को भावी सुधारक बना सकें । मेरी है वह बालक ही हो-उम दर्पणमें अपना प्रनिबिन समझम ना अभी ऐसे शिक्षकोंकी बहुत ज़रूरत है जो देख कर प्रमन्न होना है, परन्तु दूमर ही क्षणमें जब बच्चोंको या विद्यार्थियों को यथार्थ जैनधर्म की शिक्षा दे प्रौढ पुरुषको उमं नष्ट करते हुए देखना है. तोवर मकं । मैं तो समझता हूँ कि समाज जिस पटरी पर मुरझा जाना है, प्रौढ की करतन पर दुःखित होता हैचल रहा है, वह यथार्थ जैनधर्मकी लाइन नहीं है। और कभी कभी गेता भी है, हाँगता है। लेकिन तब उसके व्यावहारिक जीवनमें ब्राह्मण्य धर्मकी ऐमीछाप तो उसकी विपनि और भी बढ़ जाती है तब पर नगी हुई है और उसकी भयानकता इम लिए और प्रौढ़ हृदयहीन दार्शनिक (शुष्क पाण्डित्य) दर्पणपरकी भी बढ़गई है कि उसका हमें ज्ञान तक नहीं-कि जिम मुंझनाहट उम महदय बालक पर उतार देता है। के कारण समाज अपने धर्म तक पहुँच ही नहीं पाता। बालक गंता है, लेकिन उमी क्षण एक और वैयाकेवल मंदिर तक पहुंचता है-केवल पापागा प्रतिमा करणी उसके गर्नका व्याकरणसे अशुद्ध बनलाता है, नक पहुँचता है-कंवल 'पथाप' में बंधे हुए शास्त्रों के और उसके अन्ध अनुयायी उसका मुंह दावन। अनगे नक पहंचना है; पहुँचना चाहिए धर्म मन्दिर और उसी हालत में उसे बाहर निकाल कर इसनी दूर तक-पहुँचन चाहिए प्रतिमाकी आत्मा नक-पहुं- पहुँचा देते हैं कि फिर उसका हायपर्ण गना कोई भी चना चाहिए प्रात्म-ज्ञान या भेद विज्ञान तक । कहाँ नहीं सुन पाना।। पहुँचते हैं हम ? सुधारकों की हालन या। विना पहुँचे नो धर्मका रहस्य हम समझ नही मकता लेकिन, अब ना, तनी दाम भी उमका कनान .
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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