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गाव,वीर नि०सं०२४५६]
अनेकान्त पर लोकमत सभासद होनेसे मुझे कुछ गौरवका अनुभव होता __समाजमें अनेक साहित्यविषयक पत्रिकायें निकल
निकलकर मत्युवश हो चुकी हैं ऐसे ममय में आपने २७ निहालकरणजी सेठी, बी.ए., एम.एस.सी. अत्यन्त महत्वपूर्ण ‘अनेकान्त ' मासिक निकाल बनारस
कर जैनसमाज पर महान उपकार किया है । जैन “यह जैनसमाज के लिये परम सौभाग्य की बात समाज श्रापको जितना धन्यवाद दे उतना कम है। है कि अब उसे आपके महत्वपूर्ण लेखोंको पढ़ने मुखपृष्ठ पर जो चित्र दिया है वह तो कमाल किया का फिर से अवसर मिलेगा। जबसे 'जैनहितैपी' है। लग्योंके महत्वको गाना सर्यको पहचान कराने बन्द हुआ था तब से इस प्रकारके ऐतिहासिक सा है।" खोजसे पूर्ण लेखोंका सर्वथा अभाव था। पत्र तो ६ मुनि श्री परमानन्द नी, शंवालपीपरी-. जैनसमाजमें बहुतसे निकलते हैं किंतु एक दो को "अनेकान्त पनाका प्रथमांक मिना ।... ..ापन छोड़ कर जो स्वतंत्रता पूर्वक दो एक विषयों पर पत्रका नाम मंग आत्माके अनुकूल ही रवाया है, कुछ लिखते हैं बानी व्यर्थही समाजका समय
तदर्थ मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। उपर्युक्त पत्र तथा द्रव्य नष्ट करते हैं। उनसे आपसका वैमनस्य
निकालने की मेरी स्वयं इच्छा कुछ समय में हो
रही थी; पर आपने मेरे पहिले ही यह मेरी शुभेच्छा बढ़ता है और सामाजिक उन्नतिके मार्ग में बाधा
कार्यरूपमें परिणत कर दिखादी, इसके बदलमें ना होती है । मुझे अत्यन्त हर्ष है कि अब उन सबसे मैं आपको जितना आशीर्वाद , उतना थोड़ा ही भिन्न प्रकारकं पत्रका फिरसे उदय हुआ है । यद्यपि है। लेख मभी पठनीय है। आशा है आगे इनसे स्वयं मेरी रुचि ऐतिहासिक खोज की ओर नहीं है भी विशेष अच्छे पठनीय रहेंगे।" तथापि मुझे यह कहते तनिक भी संकोच नहीं ३० बाबू कीर्निप्रसादजी बी.ए., एल.एल.बी., कि यह कार्य बड़े महत्व का है। मैंने 'अनेकांत ' अधिष्ठाना श्रीमात्मानंदजैन-गुरुकुल, के दो अङ्क देखे हैं । उनके लेखांके विपयमें गनगँवाला - कुछ अधिक कहने की आवश्यकता नहीं है। "दार्शनिक, मैद्धान्तिक भौर निहासिक-मब आपके जिस व्यक्तित्वसे जैनसमाज वर्षों से परिचित
नरहके लाखोंस सुसज्जित 'अनेकान्त' पत्रका अवहै वही उन सबमें स्पष्ट झलक रहा है । मैं विश्वास
लोकन कर मुझं विशेष प्रसन्नता हुई । मेरा
विश्वास है कि इसी प्रकारकं यक्तिपूर्ण लेख जैनकरता हूँ कि यह पत्र उत्तरोत्तर उन्नत होकर जैन
निद्धान्त के तत्वों का भली भान्ति प्रचार और समाजकी सेवा बराबर करता रहेगा।" प्रमार कर सकते हैं । यपि यह पत्र जैनियोंका २८ मुनि श्री पुण्यविजय जी, पाटण
है, तथापि इसके लेख साफ बना रहे हैं कि यह "आपने जो पाश्रमकी योजना की है वह बहुनही
मभी धर्मों के मानने वालों को लाभदायक सिद्ध
होगा। मेगयही हार्दिक इच्छा है कि यह 'अनेकान्त' स्तुत्य है। उसमें मैं अपनीसम्पूर्णसहानभूति रखना
पत्र अनेकान्तवादके असदापोंका समाधान हूँ। आपने जो'भनेकान्त' पत्रिका निकाली है वह
करता हुमा इम पुण्यपावन स्यावाद के साविक बहुत ही अच्छा काम किया है। जिस समय जैन- अर्थक पयोधनरूप कार्यमें सफलता मात करें।"