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________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि० सं०२४५६] जैनधर्मका अहिंसा-तत्त्व ३५५ पराधीन और प्रजाको निर्वीर्य बना दिया है । इस था ? अहिंसामतका पालन करने वाला दक्षिणका आक्षेपके करने वालोंका मत है कि अहिंसाके प्रचारसे राष्ट्रकूटवंशीय नृपति अमोघवर्ष और गजरातका पालोगोंमें शौर्य नहीं रहा । क्योंकि हिंसा-जन्य पापसे लक्य वंशीय प्रजापति कुमारपाल था । क्या उनकी हरकर लोगोंने मांस-भक्षण छोड़ दिया, और बिना अहिंसोपासनासे देशकी स्वतन्त्रता नष्ट हुई थी ? इतिमांस भक्षणके शरीरमें बल और मनमें शौर्य नहीं पैदा हास तो साक्षी दे रहा है किभारत इन राजाओंके राजहोता । इसलिए प्रजाके दिलमेंसे युद्धकी भावना नष्ट त्व कालमें अभ्यदयके शिखर पर पहुंचा था। जब तक हो गई और उसके कारण विदेशी और विधर्मी लोगों भारतमें वौद्ध और जैन धर्मका जोर था और जब तक ने भारत पर आक्रमण कर उसे अपने अधीन बना ये धर्म राष्ट्रीय धर्म कहलान थे, तब तक भारतमें स्वलिया । इस प्रकार अहिंसाके प्रचारसे देश पराधीन तन्त्रता, शान्ति, सम्पत्ति इत्यादि पूर्ण रूपसे विराजती और प्रजा पराक्रम-शन्य हो गई। थीं । अहिंसाके इन परम उपासक नृपतियों ने अनेक अहिंसा के बारेमें की गई यह कल्पना नितान्त युक्ति- अनक युद्ध किये, अनेक शत्रोंको पराजित किया शन्य और सत्यसे पराङ्मुख है । इस कल्पनाकं मूल और अनेक दुष्ट जनोंको दण्डित किया । इनकी अहिंमें बड़ी भारी अज्ञानता और अनुभवशून्यता भरी हुई मोपासनानं न देशको पगधीन बनाया और न प्रजाको है। जो यह विचार प्रदर्शित करते हैं उनको न तो निर्वीर्य बनाया। जिनको गुजरात और गजपतानका भारतके प्राचीन इतिहासका पता होना चाहिए और न थोड़ा बहुत भी वास्तविक जान है, वे जान सकते है। जगत्कं मानवसमाजकी परिस्थितिका ज्ञान ही होना कि देशोंको स्वतन्त्र, समुन्नत और सुरक्षित रखने के चाहिए । भारतकी पराधीनताका कारण अहिंसा नहीं, लिए जैनोंन कैम कैम पराक्रम किये थे । जिम ममय किन्तु अकर्मण्यता, प्रज्ञानता और असहिष्णुना है। गजरानका राज्य-कार्यभार जैनोंके अधीन था-महा और इन सबका मूल हिंसा है । भारतका पुरातन इति- मात्य, मन्त्री, मनापति, कोपाध्यक्ष श्रादि यो बरे हाम प्रकट रूप से बतला रहा है कि जब तक भारतमें अधिकारपद जैनांके अधीन थं-उम समय गुजगतका अहिंसा-प्रधान धर्मोका अभ्युदय रहा, तब तक प्रजामें ऐश्वर्य उन्नतिकी चरम मीमा पर कड़ा हुआ था। ग़जशान्ति, शौर्य, सुख और सन्तोष यथेष्ट मात्रामें व्याप्त गतके इतिहाममें दगडनायक विमलशाह, मन्त्री मुंजाल, । अहिंसाधर्मके महान उपासक और प्रचारक नपनि मन्त्री शान्तु, महामात्य उदयन और बाहड, वस्तुपान मौर्य सम्राट चंद्रगुम और अशोक थे। क्या उनके मम- और नजपाल, पाम और जगह; इत्यादि जैन गजदारी में भारत पराधीन हुआ था ? अहिंसाधर्मके कट्टर पापांका जो स्थान है वह औरोंका नहीं है । केवल अनुयायी दक्षिणक कदम्ब, पल्लव, और चालुक्य वंशों गजगतके ही इतिहासमें नहीं, किन्तु ममूचे भारत के प्रसिद्ध प्रसिद्ध महाराजा थे ।क्या उनके राजत्वकाल के इतिहाममें भी इन अहिंसाधर्मके परमापामकों के म किमी परचक्रनं पाकर भारतको सनाया था ' पराक्रमकी तुलना करनेवाले पुरुष बहुत कम मिलेंगे। अहिंसातत्त्वका अनुगामी चक्रवर्ती सम्राट् श्रीहर्ष था। जिस धर्मके परम अनुयायी स्वयं गेम शरबीर और क्या उसके समयमें भारतको किसीने पददनिन किया पराक्रमशाली थे और निम्होंने अपने पुरपार्थ में देश
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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