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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ११, १२ एक प्राचीन,स्वतंत्र और उच्च सिद्धान्तानुयायी समझने दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों संप्रदायोंमें कौन लगा है । साथ ही हमारा इतिहास कितना अधिक पहलेका और कौन पीछेका ? इस प्रश्नको लेखभरमें विस्तीर्ण और गौरवान्वित है यह बात भी दिन-पर-दिन कहीं भी उठाया नहीं गया है और न सारे लेखको लोकमान्य होती चली जाती है। वह समय अब दूर पढ़नेसे यही मालम होता है कि लेखक महाशय उसमें नहीं है जब यह स्वीकार करना होगा कि 'जैनियोंका दोनों संप्रदायोंकी उत्पत्ति पर कोई विचार करने बैठे हैं। इतिहास सारे संसारका इतिहास है।' गहरी विचार- ऐसी हालतमें उक्त भूमिकाके अंतिम वाक्यमें जब यह दृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि कहा गया कि "निग्रंथ दिगम्बर मत ही मूल धर्म है"
आज जैन सिद्धान्त सारे विश्वमें अदृश्य रूपसे अपना और उसे "इतिहाससं सिद्ध" हुश्रा बतलाया गया तब कार्य कर रहे हैं। जैनसमाज अपने इतिहासके अनु- संपादकके हृदयमें स्वभावतः ही यह प्रश्न उत्पन्न हुश्रा संधान तथा प्रकाशनमें यदि कुछ भी शक्ति व्यय करता कि इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'मल' शब्दकी मर्यादा तो आज हमारी दशा कुछ और ही होती । इतिहाससे क्या है ?-उसका क्षेत्र कहाँ तक सीमित है ? अथवा यह सिद्ध हो चुका है कि निग्रंथ दिगम्बर मत ही वह किस दृष्टि, अपेक्षा या आशयको लेकर लिखा मूल धर्म है।"
गया है ? क्योंकि 'मूल' शब्दके आदि (श्राद्य) और
प्रधान श्रादि कई अर्थ होते हैं और फिर दृष्टिभेदसे लेखकी इस भूमिकामें जैनियोंकी, जैनपुरातत्त्व- -
पुरातत्व उनकी सीमामें भी अन्तर पड़ जाता है । तब दिगंबरका,हमें,हमारा, जैनियोंका, जैनसिद्धान्त, जनसमाज, मत किस अर्थमें मल धर्म है और किसका मूल धर्म हमारी, ये शब्द एक वर्गके हैं और वे दिगम्बर-श्वेता- है अर्थात श्रादिकी दृष्टिस मूल धर्म है या प्रधानकी म्बरका कोई सम्प्रदाय-भेद न करते हुए अविभक्त सि मल धर्म है ? और इस प्रत्येक दृष्टिके साथ,
परातच्वको लेकर
का लकर सर्वधर्मोकी अपेक्षा मूलधर्म है या वैदिक आदि किसी लिखे गये हैं, जैसा कि उनकी प्रयोग-स्थिति अथवा
वा जैनधर्मकी किसी शाखाविशेषकी लेखकी कथनशैली परसे प्रकट है । और 'हिन्दुओंमें,
PM विश्वकी अपेक्षा मलधर्म संसार, लोकमान्य, सारे संसारका, सारे विश्वमें ये
है या भारतवर्ष श्रादि किसी देशविशेषकी अपेक्षा शब्द दूसरे वर्गके हैं, जो उस समूहको लक्ष्य करके
मूल धर्म है? सर्व युगोंकी अपेक्षा मूल धर्म है या किसी लिखे गये हैं, जिसके साथ अपने इतिहास, अपने सि- याविशेषकी अपेक्षा मूल धर्म है ? सर्व समाजोंका द्वान्त या अपनी प्राचीनता आदि के सम्बंधकी अथवा
मूल धर्म है या किसी समाजविशेषका मूल धर्म है ? मुकाबलेकी कोई बात कही गई है ? और इस पिछले
इस प्रकारकी प्रश्नमाला उत्पन्न होती है । लेख परसे कि भा दा विभाग किय जा सकत है-एक मात्र इसका कोई ठीक समाधान न हो सकनेसे 'मूल' शब्द हिन्दुओं अथवा वैदिक धर्मानुयायियोंका और दूसरा पर नीचे लिखा फुटनोट लगाना उचित समझा गयाःअखिल विश्वका । वैदिक धर्मानुयायियोंके मुकाबलेमें "अच्छा होता यदि यहाँ 'मृल' की मयोदा अपनी प्राचीनताके संस्थापनकी बात लेखके अन्त तक कही गई है, जहाँ एक पूजन विधानका उल्लेख करनेके का भी कुछ उल्लेख कर दिया जाता, जिससे पार लिखा है-"यदि हम पाश्चात्यरीत्यानुसार गणना पाठकोंको उस पर ठीक विचार करनेका प्रव. कर उसकी प्रारम्भिक अवस्था या उत्पत्तिकाल पर सर मिलता।" पहुँचनेका प्रयत्न करेंगे तो वैदिक कालसे पूर्व नहीं तो
यह नोट कितना सौम्य परापर भरय पहुँच जायगे । मैं तो कहूँगा कि यह संयत भाषामें लिखा गया है और लेखकी सपर्युक विमान विक कालो पात पूर्व समयका है। बाकी स्थितिको भ्यानमें रखते हुए कितना पावश्यक मान
जैनसमाज, जैनसिद्धान्त त