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________________ आश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] एक विलक्षण मागेप ६६१ पड़ता है । परन्तु बैरिष्टर साहब इसे भी “कमची" जाता । परन्तु उसमें 'मूल'से पहले 'जैनसमाजका ये बतलाते हैं ! और इसे उद्धृत करते हुए लिखते हैं :- शब्द अथवा इसी आशयके कोईदूसरे शब्द नहीं हैं और " 'मौलवी साहब' को 'मूल' का शब्द नापसंद बातें पहले हिन्दुनों, संसार तथा विश्वके साथ सम्बहुआ। फिर क्या था ! तड़से क्रमची पड़ी और चटसे न्धकी की गई हैं और अंत तक वैदिक धर्मानुयायियों के निम्न लिखित फटनोट जोडा गया। मुकाबलेमें अपनी प्राचीनताकी बात कही गई है, तब ___ यह है वैरिष्टर साहबकी सुसभ्य और गंभीर वि- 'मूल'का वैसा अर्थ नहीं निकाला जा सकता। अतः बैचारभाषाका एक नमूना ! ऐसी ही गंभीर विचार- रिष्टरसाहबन जो बात सुझानेकी चेष्टा की है वह उनकी भापासे साग लेख भग हुआ है, जिसके कुछ नमूने कल्पनामात्र है-लेख परसे उसकी उपलब्धि नहीं पहले भी दिये जा चके हैं। एक अति संयत भाषामें होती। और सिलसिले ताल्लक (rclevenes,की दुहाई लिखे हुए विचारपूर्ण मौम्य नोटको 'कमची' की उप- उनकी अविचारित रम्य है। मा देना हृदयकी कलुपताको व्यक्त करता है और इसके बाद बैरिष्टर साहब "मूलकी मर्यादा" का माथ ही इस बातको सूचित करता है कि आप विचारके अर्थ समझने में अकुलाते हुए लिखते हैंद्वारको बन्द करना चाहते हैं । अम्तु; बैरिष्टर साहबने "परेशान हूँ कि मूल की मर्यादाका क्या अर्थ करूं? इस नोटकी अलोचनामें व्यंगरूपमे छोटेलालजी की क्या कुछ नियत समय के लिये दिगंबरी संप्रदाय मूल हो समझकी चर्चा करते हुए और यह बतलाते हुए कि सकता है और फिर श्वेताम्बरी ? या थोड़े दिनों श्वेउन्होंने भल की जो "यह न समझे कि 'मूल' में ननाजा ताम्बरी मूल रहवें और फिर दिगंबरी होजावें या कुछ दिगम्बरी-श्वेताम्बरी इन्नदाका ही नहीं आता है, बल्कि अंशोंमें यह और कुछमें वह ? आखिर मतलब क्या दुनिया भरके और मब किस्मकं झगड़े भी शामिल हो- है ? मेरे खयाल में मुझसे यह गंभीर प्रश्न हल नहीं सकेंगे," लिया है हो सकेगा। स्वयं संपादकजीही इस पर प्रकाश डालेंगे "अगर छोटेलाल जीवकील होत ताभी कुछबात थी, नो काम चलेगा। मगर एक बात और मेरे मनमें पाती क्योंकि फिर तो वह यह भी कह सकते कि माहब मेरा है और वह यह है कि शायद सम्पादकजी श्वेताम्बरी तो खयाल यह था कि मजमूनको सिलसिले ताल्लुक मतको ही मूल मानत होंगे; नहीं तो इस मूल' के शब्द (relevency) की दृष्टिकोणसं ही पढ़ा जामकेगा।" के ऊपर फटनोटकी क्या जरूरत थी ? हो, और याद __ और इसके द्वाग यह सुझाने की चेष्टा की है कि आई । बम्बईसे मैंने भी करीब तीन चार माहके हुए उक्त वाक्यमें लेखके सम्बंधक्रमसे अथवा प्रस्तावानु- एक लेख श्वेताम्बरीमतके मूल दिगम्बरीमतकी शाखा कूल या प्रकरणानुसार 'मूल' का अर्थ दिगम्बरमतके होनेके बारे में लिख कर 'अनकान्त' में प्रगट होनेको श्वेताम्बरमतसे पहले (प्राचीन ) हानेका ही निकलता भेजा था । वह अभी तक मेरे इल्ममें 'अनेकान्त' में है दूसरे मतोंसे पहले होनेका या प्रधानता आदिका नहीं छपा है। शायद इसी कारण से न छापा गया होगा नहीं। परन्तु मूल लेखके सम्बन्धक्रम अथवा उसके कि वह खुल्लमखुल्ला दिगम्बरी मतको सनातन जैनधर्म किसी प्रस्ताव या प्रकरणसे ऐसा नहीं पाया जाता; बतलाता था और श्वेताम्बरी सम्प्रदायके 'मूलत्व' के जैसा कि ऊपर 'मूल' शब्दसे पूर्ववर्ती पुरे लेखांशको दावेको जड़ मूलसे उखाड़ फेंकता था।" उद्धृत करके बतलाया जा चुका है । हाँ, यदि उस इससे स्पष्ट है कि उक्त नोटमें प्रयुक्त हुए 'मूलकी वाक्यका रूप यह होता कि "निर्पथ दिगम्बर मत ही मर्यादा' शब्दोंका अर्थ ही बैरिष्टर साहब ठीक नहीं जैनसमाजका मूल धर्म है" तो ऐसा प्राशय निकाला समझ सके हैं, वेचकरमें पर गये हैं और वैसे ही बिना जा सकता था और तब,मूलकी मर्यादाका एक उल्लेख समझे अटकलपाटनकी मालोचना करने के लिये प्रयुत होजानसे, उसपर इस प्रकारका कोई नोट भी नलगाया हुए हैं। इसीलिये 'मर्यादा का विचार करते हुए भाप
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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