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________________ पौष, वीर नि०सं०२४५६ ] सुभाषितमणियाँ सुभाषित मणियाँ प्राकृत चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जोसो समोत्ति खिद्दिट्ठो मोहक्खोहविडीयो परिणामो अपणो हु समो || - कुन्दकुन्दाचार्य | ‘जो सम्यक्चारित्र है— दर्शनज्ञानपूर्वक स्वरूपाचरण है - वही (वस्तु स्वभाव होने से ) धर्म है, जो धर्म है उसी को साम्यभाव कहते हैं और जो साम्यभाव है. वह और कुछ नहीं, मोह क्षोभमे विहीन - श्रथवा राग द्वेष काम क्रोधादिकसे रहित - अपने आत्माका afare परिणमन है । (इसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि वास्तव में ऐसे समताभाव का नाम ही धर्म और चारित्र है। जहाँ यह नहीं वहाँ महज़ उठने बैठने आदि रूपसे कुछ क्रियाकांड कर लेने पर ही धर्म तथा चारित्र नहीं बन सकता । ) "आसाम्बरो य सेयम्बरो य बुद्धीव अव अण्णो वा समभावभाविप्पा पावइ मोक्खं रण संदेहो || " ‘दिगम्बर हो, श्वेताम्बर हो, बौद्ध हो, अथवा दूसरे ही किसी सम्प्रदायका व्यक्ति हो, यदि वह साम्यभाव से भावितात्मा है तांनिःसन्देह मोक्षको प्राप्त होता हैअपने साम्यभाव की मात्रानुसार बन्धनमे छूटना अथवा उससे निर्मुक्त रहता है ।' जो विजादि विया तरुणियणकडक्खवाण विद्रावि सो चैव सूरसूरो रणसूरो णां हवइ सूरो ।। -स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा । 'तरुणी स्त्रियोंके कटाक्षचाणोंसे बांधा जाने पर १०७ भी जो विकार भावको प्राप्त नहीं होता वही शूरवीर है, शुरको — संग्राम में वीरता दिखलाने वाले को( वास्तव में ) शूरवीर नहीं कहते ।' लच्छि वंछेइ एरो व सुधम्मेसु श्रयरं कुलई । are विणा कुत्थवि किं दीसदि सस्सरिणप्पत्ती ॥ स्वामिकार्तिकेय | 'मनुष्य लक्ष्मी तो चाहता है परंतु (उसके कारण ) सुधर्मों के सत्कर्मों के — अनुष्ठान में सादर प्रवृत्त नहीं होता । ( इससे उसे यदि लक्ष्मी न मिले तो ठीक ही है । ) क्या बिना बीजके भी कहीं धान्यकी उत्पत्ति होती देखी गई है ?" यको विदेदि लच्छीको विजीवस्सकुरणदिउवयारं उत्रयारं अत्रयारं क्रम्मं वि सुहासुडं कुणदि । स्वामिकार्तिकेय | ( वास्तव में ) कोई (व्यन्तरादिकदेव ) लक्ष्मी नहीं देता और न कोई जीवका उपकार ही करता है, उपकार और अपकार यह सब अपना ही शुभाशुभ कर्म करता है - अपने ही अच्छे बुरे कर्मोंका नतीजा है । ( इसमे अपना भला चाहने वालोंको दूसरोंकी भाशा पर ही निर्भर न रह कर शुभ कर्ममें प्रवत्ति करनी चाहिये । ) गए रंगिए हियवडर, देउ एग दीसह संतु । दप्पणि मलइ बिंबु जिम, एहउ जाणि भिंतु ॥ — योगीन्द्र देव | जिस प्रकार मैले दर्पण में मुख दिखलाई नहीं देता उसी प्रकार राग भावसे रंगे हुए हृदयमें वीतराग शांत देवका दर्शन नहीं होता, यह सुनिश्चित है।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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