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________________ १०८ अनेकान्त [वर्ष १, किरण २ संस्कृत कर उसे बढ़ा देता है वही एक दीपकके रूपमें प्रस्तुत गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोही नैत्र मोहवान । हुई अग्निके नाशका कारण बन जाता है-उसे अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ।। , बुझा देता है। सो ठीक है, दुर्बलके माथ किसकी -स्वामी समन्तभद्र। मित्रता होती है ?' 'जो गृहस्थ मोहसे-मिथ्यादर्शनसे-रहित एवं येनांचलेन सरसीरुहलोचनायासम्यग्दृष्टि (अनेकान्तदृष्टि) है वह मोक्षमार्गी है, परंतु स्वातः प्रभूतपवनादुदये प्रदीपः । वह गृहत्यागी मोक्षमार्गी नहीं जो मोहसे युक्त एवं तेनैव सोऽस्तसमयेऽस्तमयं विनीतः मिध्यादृष्टि (एकान्तदृष्टि) है । और इसलिये मोही क्रद्धे विधौ भजति मित्रममित्रभावम् ।। मुनिसे निर्मोही गृहस्थ श्रेष्ठ है।' 'उदयके समय एक.स्त्रीके जिस अंचलने दीपक"पात्रे त्यागी गुणे रागी भोगी परिजनैः सह। की प्रचुर पवनसे रक्षा की थी अस्तके समय उसी शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा पुरुषः पंचलक्षणः॥" अंचलने उसे यमपुर पहुंचा दिया-बुझा दिया । सो __ 'जो पात्रके प्रति त्यागी, गुणके प्रति रागी, परि- ठीक ही है, जब विधि क्रुद्ध होता है भाग्य उलटता जनोंके साथ भोगी, शास्त्र के जानने वाला और रणके है-तब मित्र भी शत्रु बन जाते हैं।' उपस्थित होने पर युद्ध करने वाला है वही पुरुष है- दुःखी दुःखाधिकान्पश्येत्सुखीपश्येत्सुखाधिकान्। मर्द है और इस तरह पुरुषके पाँच लक्षण बतलाये आत्मानं हर्ष शोकाभ्याँ शत्रुभ्यामिव नार्पयेत् ।। गये हैं।' 'दुखी मनुष्यको चाहिये कि वह अपनसे अधिक "परोपि हितवान्वन्धर्वन्धरप्यहितः परः। दखियांको देखे और शोक न करे, और सुखी मनुष्य अहितो देहजो व्याधिःहितमारण्यमौषधम् ॥" को चाहिये कि वह अपनेसे अधिक सुखियोंको देखे 'पर भी और शख्स भी-यदि अपना हित करने और हर्ष न मनाए । कारण, हर्ष और शोक ये दोनों वाला है तो वह बन्धु है-अपनाने योग्य है-, और। - ही शत्रु हैं-अपना अनिष्ट करने वाले हैं-इनके सुपर्द और कभी अपने आत्माको नहीं करना चाहिये ।' अपना मगा भाई भी यदि अहितकर है तो वह पर जीवन्तु मे शत्रुगणाः सदैव है-त्यागने योग्य है । और यह ठीक ही है, अपने येषां प्रसादेन विचक्षणोऽहम् । ही शरीरसे उत्पन्न हुई व्याधि अहितकर होनेसे ही यदा यदा मां भजते प्रमादत्याज्य है-उसे कोई अपनाता नहीं-और अपनेसे स्तदा तदा ते प्रतिबोधयन्ति । भिन्न जंगलमें उत्पन्न हुई ओषधि हितकारी होनेसे ही ___'मेरे शत्रुगण सदा जीवित रहें, जिनके प्रसादसे मैं प्राय बनी हुई है-उसे सब अपनाते हैं। विचक्षण हुआ हूँ। कारण ? जब जब मुझसे प्रमाद (इसमें अपने और पराएकी अच्छी पहचान बतलाई गई है) बनता है तब तब वे (अपने आक्षेपादि प्रहारों द्वारा) "वनानि दहतो वन्हः सखा भवति मारुतः। मुझे सावधान कर देते है-इससे प्रमाद मुझे अधिक '..., सताने नहीं पाता और मैं उत्तरोत्तर सतर्क तथा सावस एव दीपनाशाय कृशं कस्यास्ति सोहदम् ।।" , नाशाय श कस्यास्ति साइदम् ।।" धान बनता जाता हूँ, और इसी लिये वे एक प्रकारसे 'जो पवन वनोंको जलाती हुई अग्निका मित्र बन मेरे उपकारी हैं।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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