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आपाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि० सं० २४५६ ]
उक्त दूसरे अध्याय में जीव का जो उपयोग लक्षण२३ कहा गया है वह आत्मवादी सभी दर्शनों द्वारा स्वीकृत उनके ज्ञान या चैतन्य लक्षण से जुदा नहीं । वैशेषिक और न्यायदर्शन के इन्द्रियवर्णन की अपेक्षा उक्त दूसरे अध्याय २४ का इन्द्रियवर्णन जुदा दिखाई देते हुए भी उसके इंद्रियसम्बंधी भेद - उनके नाम और प्रत्येक के विषय न्याय२५ तथा वैशेषिक दर्शन के साथ लगभग शब्दश: समान हैं। वैशेषिक - दर्शनश्व में जो पार्थिव, जलीय, तेजस और वायवीय शरीरों का वर्णन है तथा सांख्यदर्शन २० में जो सूक्ष्म लिंग और स्थूल शरीर का वर्णन है वह तत्त्वार्थ के शरीरवर्णन से जुदा दिखाई देते हुए भी वास्तव में एक ही अनुभव के भिन्न पहलुओं ( पाश्वों) का सूचक है । तत्वार्थ में जो बीच से टूट सके और न टूट सके ऐसे आयुष्य का वर्णन है और उसकी जो उपपत्ति दर्शाई गई है वह योगसूत्र ३० और उसके भा ध्यके साथ शब्दशः साम्य रखती है । उक्त तीसरे और चौथे अध्याय में प्रदर्शित भुगोलविद्या का किसी भी दूसरे दर्शन के सूत्रकारने स्पर्श नहीं किया; ऐसा होते हुए भी योगसूत्र ३, २६ के भाग्य में नरकभूमियोंका, उनके आधारभूत घन, सलिल, वात, आकाश आदि तत्वों का, उनमें रहने वाले नारकियों का, मध्यमलोक का, मेरु का; निषध, नील आदि पर्वतों का; भरत, इलावृत्त आदि क्षेत्रों का; जम्बुद्वीप, लवणसमुद्र आदि
उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र
२३ तत्वार्थ २, ८ । २४ तत्त्वार्थ २, १५-२१ । २५ न्यायसूत्र १, १, १२ र १४ । २६ देखा, 'तर्कसंग्रह' पृथ्वी से वायु तक का निरूपण । २७ ईश्वरकृष्णकृत 'सांख्यकारिका' का ० ४० से ४२ । २८ तत्वार्थ २, ३७ - ४६ । २६ तत्वार्थ २, ५२ । ३० योगसूत्र ३, २२ विस्तार के लिये देखो, 'तत्वार्थ सूत्र के प्रणेता उमास्वाति' शीर्षक लेख ( अनेकान्त कि०६, ७१० ३६२,३६३)
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द्वीप समुद्रों का; तथा ऊर्ध्वलोकसम्बंधी विविध स्वर्गे का, उनमें बसने वाली देवजातियों का, उनके श्रायुषों का; उनकी स्त्री, परिवार आदि भोगों का और उनके रहन-सहन का जो विस्तृत वर्णन है वह तत्त्वार्थ के तीसरे, चौथे अध्यायको त्रैलोक्यप्रज्ञप्तिकी अपेक्षा कमनी मालूम देना है। इसी प्रकार बौद्ध ३१ ग्रंथोंमें वर्णित द्वीप, समुद्र, पाताल, शीत-उष्णनारक, और विविध देवोंका वर्णन भी तत्वार्थ त्रैलोक्य प्रज्ञप्ति की अपेक्षा संक्षिप्त ही है । ऐसा होते हुए भी इन वर्णनों का शब्दसाम्य और विचारसरणी की समानता देख
कर आर्य दर्शनों की जुदी जुदी शाखाओं का एक मूल शोधने की प्रेरणा हो आती है ।
पाँचवाँ अध्याय वस्तु, शैली और परिभाषा में दूसरे किसी भी दर्शन की अपेक्षा वैशेषिक और सांख्य द र्शन के साथ अधिक साम्य रखता है । इसका बड् द्रव्यवाद वैशेषिक दर्शन के षट् पदार्थवादकी याद दिलाता है। इसमें प्रयुक्त साधर्म्य- वैधर्म्य-वाली शैली वैशेषिक दर्शन ३ का प्रतिबिम्ब हो ऐसा भासता है । यद्यपि धर्मास्तिकाय ३४ अधर्मास्तिकाय इन दो द्रव्यों की कल्पना दूसरे किसी दर्शनकारने नहीं की और जैनदर्शन का श्रात्मस्वरूप भी दूसरे सभी दर्शनों की अपेक्षा जुदे ही प्रकार का है। तो भी आत्मवाद और पुद्गलवाद से सम्बंध रखने वाली बहुतसी बातें वैशेषिक, सांख्य आदि के साथ अधिक साम्य रखती हैं ।
३१ धर्मसंग्रह ० २६-३१ तथा अभिधम्मत्थसग हो परिच्छेद ५ पैरेग्राफ़ ३ से भागे । ३२ वैशेषिक दर्शन १, १, ४ । ३३ प्रशस्तपाद पृ० १६ से । ३४ तत्वार्थ ५, १, और ५, १७; विशेष विवरण के लिये देखा, 'जैनसाहित्य संशोधक' खगड तृतीय पहला तथा चौथा । ३५ तत्वार्थ ५,१५-१६ ।