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अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ८, ९, १०
के भेद, उनका परस्पर साधर्म्य-वैधर्म्य; उनका स्थितिक्षेत्र और प्रत्येक का कार्य । १२ पुद्गल का स्वरूप, उसके भेद और उसकी उत्पत्ति के कारण । १३ सन और नित्य का सहेतुक स्वरूप । १४ पौद्गलिक बन्ध की योग्यता और अयोग्यता । १५ द्रव्य सामान्य का लक्षण, काल को द्रव्य मानने वाला मतान्तर और उसकी दृष्टि से काल का स्वरूप । १६ गुण और परिगाम के लक्षण और परिणाम के भेद ।
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अनेक भेद-प्रभेदों का और उनसे सम्बंध रखने वाली अनेक बातों का वर्णन है । तीसरे अध्याय में अधोलोक में बसने वाले नारकियों और मध्यलोक में बसने वाले मनुष्यों तथा पशु-पक्षी आदि का वर्णन होने से उनसे सम्बंध रखने वाली अनेक बातों के साथ पाताल और मनुष्य लोक की संपूर्ण भूगोल आ जाती है.
अध्याय में देव सृष्टि का वर्णन होकर उसमें खगोल के अतिरिक्त अनेक प्रकार के दिव्य धामों का और उनको समृद्धि का वर्णन है । पाँचवें अध्याय में प्रत्येक द्रव्य के गुण-धर्म का वर्णन करके उसका सामान्य स्वरूप बतलाकर साधर्म्य - वैधर्म्म द्वारा द्रव्य मात्र की विस्तृत चर्चा की है।
तुलना - उक्त बातों में की बहुत सी बातें श्रा और प्रकरण प्रन्थों में हैं, परंतु वे सभी इस ग्रन्थ की तरह संक्षेप में संकलित और एक ही स्थल पर न हो कर इधर उधर बिखरी हुई हैं । 'प्रवचनसार' के ज्ञेयमीमांसा में मुख्य सोलह बातें श्राती हैं जो ज्ञेयाधिकार में और 'पंचास्तिकाय' के द्रव्याधिकार में इस प्रकार हैं :
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पहले अध्याय में - १ जीव तत्व का स्वरूप | २ संसारी जीव के भेद । ३ इन्द्रिय के भेद - प्रभेद, उनके नाम, उनके विषय और जीवराशिमें इंद्रियों की बॉट ४ मृत्यु और जन्म के बीचकी स्थिति । ५ जन्मोंके और उनके स्थानों के भेद तथा उनका जातिवार विभाग । ६ शरीर के भेद, उनके तारतम्य, उनके स्वामी और एक साथ उनका संभव । ७ जातियों का लिंग-विभाग और न टट सके ऐसे आयुष्य की भोगने वालों का निर्देश । तीसरे और चौथे अध्याय में - ८ अधोलोक के विभाग, उसमें वसनेवाले नारकी जीव और उनकी दशा तथा जीवनमर्यादा वगैरह । ९ द्वीप, समुद्र, पर्वत, क्षेत्र आदिद्वारा मध्य लोक का भौगोलिक वर्णन तथा उसमें बसने वाले मनुष्य, पशु, पक्षी आदि का जीवनकाल । १० देवों की विविध जातियाँ, उनके परिवार, भोग, स्थान, समृद्धि, जीवनकाल और ज्योतिर्मडल द्वारा खगोलका वर्णन । पाँचवें अध्याय में - ११ द्रव्य
ऊपर बतलाये हुए पाँचवें अध्यायके ही विषय हैं परंतु उनका निरूपण इस ग्रन्थ से जुदा पड़ता है। पंचास्तिकाय और प्रवचनसार में तर्कपद्धति तथा विस्तार है, जब कि उक्त पाँचवें अध्याय में संक्षिप्त तथा सीधा वर्णन मात्र है ।
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ऊपर जो दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय की सार बातें दी हैं वैसा अखंड, व्यवस्थित और सांगोपां वर्णन किसी भी ब्राह्मण या बौद्ध मूल दार्शनिक सूत्र प्रन्थ में नहीं दिखाई देता । बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र २२ के तीसरे और चौथे अध्याय में जो व दिया है वह उक्त दूसरे, तीसरे और चौथे अध्याय की कितनी ही बातों के साथ तुलना किये जाने के योग्य हैं; क्योंकि इसमें मरण के बाद की स्थिति, उत्क्रान्ति, जुदी जुदी जाति के जीव, जुदे जुदे लोक और उनके स्वरूप का वर्णन है ।
२२ देखो, 'हिन्दतत्वज्ञाननो इतिहास' द्वितीय भाग, १०१६ २ से आगे ।