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________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] उमास्वाति का तस्वार्थसूत्र ४४५ ज्ञानमीमांसाकी सार बातें-पहले अध्यायों का स्मरण कराता है । इसके दिव्य ज्ञान में वर्णित ज्ञानसे सम्बंध रखनेवाली मुख्य बातें आठ हैं और वे मनःपर्याय का निरूपण योग दर्शन और बौद्धदर्शइस प्रकार हैं:-१ नय और प्रमाण रूपसे ज्ञानका वि- न१२ के परचित्तज्ञान की याद दिलाता है। इसमें जो भाग। २ मतिआदिआगम प्रसिद्ध पाँचज्ञान और उनका प्रत्यक्ष-परोक्षरूप से५३ प्रमाणों का विभाग है वह वैप्रत्यक्ष परोक्ष दो प्रमाणोंमें विभाजन । ३ मतिज्ञानकी शेषिक और बौद्ध दर्शन१४ में वर्णित दो प्रमाणों का, उत्पत्तिके साधन, उनके भेद-प्रभेद और उनकी उत्पत्ति मांख्य और योग दर्शन १५ में वर्णित तीन प्रमाणोंका; के क्रमसूचक प्रकार । ४ जनपरंपरा में प्रमाण माने न्यायदर्शन १६ में प्ररूपित चार प्रमाणों का और मीजाने वाले आगमशास्त्र का श्रुतज्ञान रूपसे वर्णन। मांसा दर्शन१० में प्रतिपादित छह आदि प्रमाणों के ५ अवधि आदि तीन दिव्य प्रत्यक्ष और उनके भेद- विभागो का समन्वय है । इम ज्ञानमीमांसा१८ में जो प्रभेद तथा पारस्परिक अंतर । ६ इन पाँचों ज्ञानों का ज्ञान-अज्ञान का विवेक है वह न्याय दर्शन की यतारतम्य बतलाते हुए उनका विषयनिर्देश और उनकी थार्थ-अगथार्थ बुद्धि का तथा योगदर्शन२० के प्रमाण एक साथ संभवनीयता । ७ कितने ज्ञान भ्रमात्मक भी और विपर्यय का विवेत,-जैमा है। इसमें जो नयका हो सकते हैं ? वे और ज्ञान के यथार्थ अयथार्थपणा स्पष्ट निरूपण है वैमा दर्शनान्तर में कहीं भी नहीं। के कारण । ८ नय के भेद-प्रभेद। मंक्षेप में ऐसा कह सकते हैं कि वैदिक और बौद्धदर्शन तुलना-ज्ञानमीमांसामें ज्ञानचर्चा है, 'प्रव- में वर्णिन प्रमाणमीमांसा के स्थान पर जैनदर्शन क्या चनसार' के ज्ञानाधिकार-जैसी तर्कपरस्सर और दार्श- मानता है वह सब विगतवार ( सफमीलवार ) प्रस्तुत निक शैली की नहीं, बल्कि नन्दीसत्र की ज्ञानचर्चा- ज्ञानमीमांसा में वा०रमाम्बानि न दर्शाया है। जैसी आगमिक शैली की होकर ज्ञान के मंपूर्ण भेद- ज्ञेयपीमामा को मार बातें-- ज्ञेयमीमांसा में प्रभेदों का तथा उनके विषयों का मात्र वर्णन करने जगत के मूलभत जीव और अजीव इन दो नत्वों का वाली और ज्ञान, अज्ञान के बीच का भेद बताने वाली वर्णन है। इनमें में मात्र जीव तत्व की चर्चा दमर से है। इसमें जो अवग्रह, ईहा आदि लौकिक ज्ञान की चौथे नक नान अध्यायों में है। दूसरे अध्याय में जीव उत्पत्तिका क्रम सूचित किया गया है वह न्यायशास्त्र तत्व के मामाम्य स्वरूप के अतिरिक्त संमारी जीव के में आने वाली निर्विकल्प, सविकल्प ज्ञान की और बौद्ध अभिधम्मत्थमंगहर में आने वाली ज्ञानोत्पनि की ११ दना, ३, १६ यागदन । १२ अभिधम्मन्थमय । प्रक्रिया का म्मरण कराती है। इसमें जो अवधि आदि परि०८ पग्राफ २४ मार नागान का धसग्रह पृ० ।। १३ तन्वार्थ १, १०-१२ । १४ प्रशस्तपाद क. पृ० २१३ ५० १२ नीन दिव्य ( प्रत्यक्ष ज्ञानों का वर्णन है वह वैदिक ५० और न्यायविन्दु १,२ । १५ ईनस्कृया कृत मान्य कारिका और बौद्ध दर्शन के सिद्ध, योगी तथा ईश्वर के ज्ञान का० ४ प्रौर योगदर्शन १, ७ । १६ देवा, १, १, ३ न्यायसूत्र ६ तत्त्वार्थ १, १५-१६ । ७ देखो 'मुक्तावलि' का० .. १७ मीमांमासूत्र १, ५ का शाबर-भाग्य । १८ तन्वार्थ १, ३३ से भागे। : अभिधम्म परिच्छेद ४ परग्राफ से। तत्त्वार्थ १४तर्क रामह-बुद्धिनिरूपण । २०यांग मूत्र १,६ । १, २१-२६ और ३० । १० प्रशस्तपादकदली पृ० १८७ । २१ तत्त्वार्थ १, ३४-३७ ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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