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________________ आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, वीरनि०सं०२४५६] योगीन्द्रदेवका एक और अपभ्रंश ग्रंथ ५४७ केवलणाणफुरंततणु सो परमप्पउ देउ ॥६॥ नोट जस मणि णाणु न विप्फुरइ सव्ववियप्प हणंतु । इस प्रन्थकी एक प्रति देहलीके नये मंदिरमें भी मो किउ पावइ णिञ्चसुहुसयलई धम्म कहंतु ।।६४॥ " है, जो कि “ पोप शुक्ल ६ शुक्रवार संवन् १७९४" की 'अप्पा दंसणु केवलउ आएणु सयलु ववहारु ।। लिखी हुई है । ग्रन्थका नाम आदि-अन्तमें "पाहुडएक्कु सुजोइय झाइयइ जइ तइलोयह सारु ॥६७ 1 दोहा" दिया है। इसकी पत्रसंख्या १२ और पद्यसंख्या अप्पा दसपणापामा १ वही २२० है । तथा वे सब पद्य भी इसमें मौजद हैं २इम जाणे विण जोइयही छंडहु मायाजाल ६८ जा लेखक महोदयन अपने लेग्वमें उद्धृत किये हैंमुझे विश्वास है कि इन यथच्युत उद्धरणा- किसी किसी पद्यम नम्बरका कुछ भेद है और कहीं चने हुए पद्यों-परमे पाठक दाहापाहुड के विषयका कहीं माधारण-सा पाठभेद भी पाया जाता है । परंतु अच्छी तरहसे अनुभव कर सकेंगे। श्री योगीन्द्रदेवकी पद्योकी इस संख्यामे सब दोहे ही नहीं, किन्तु कुछ भापा बिल्कुल सादा-घरेल् बोलचाल जैसी है और गाथा आदि दूमरे छंदोक पा भी पाये जाते हैं और उनकी लेखनपद्धति श्रमसाध्य समासोस रहित सुकामल अंतिम भागमे संस्कृत के तीन पद्म भी उपलब्ध होते है। और अम्खलित है। यह बहुत संभव है कि उन्होंने ऐम पद्योकी संख्या यद्यपि बहुत थोड़ी है फिर भी अपभ्रंशमें और भी ग्रंथ लिग्वे हो। वह २० से कम नहीं है, ऐमा मरसरी तौर पर नजर डाल कर मार्क करनेम मालम हुआ है। : न पद्यों मे १ परमात्मप्रकाश पद्य न०६ ७ और यह प्राय एक ही है कुछ पदा नमूनके तौर पर इस प्रकार हैं:कक वाक्य योगलारके पद्य न०३३ क माथ मनानता रखते है । ' सोणन्थि इह पएमा, चोगसीलक्ख नोगिमज्झम्मि . योगसारक ०१ पटक उनके माथ तुलना करे। एक ग्रन्थ प्रापक श्रावक चाराहक भी है, निममें मध जिणवयणं अलहंता,जत्थ ण ढरहालियां जीवो।२३ मिला कर २२४ छोह है । इसकी एक प्रति प्रागग-माती कटगा आगहिज्जइकाई, दिउ परपसरु कहिगयउ । नपन्दिरमें और दमी दह नीके पञ्चायती नान्दिाम है । प्रागगकी बीमारिजजड काई,तास जामिउ सबगउ॥५०॥ प्रतिमें ग्रथकत का नाप 'जोगेंद्रनेव' दिया है जब कि हनी की हलिमहि काई करइ सी दप्पण, प्रतिमें नामका कुछ उल्लंग्व ही नी। य दानो प्रतिया मैने दी है -पहनी बरत अगुद्र और दृमी अपेन कृत अच्छी शुद्र है । जहि पडिविवि ण दीमइ अपणु । दमी प्रति परमे उतारी हुई मग पाम भी इसका एक प्रति है। अप धंधइ वालमा जगु पडिहासह, प्रय भाषाको दृष्टिम इस अथवा जा महत्व है व तो है ही परंतु घरि अन्थं तु ण घग्वइ दासइ ।। १२१॥ पद पद पर कितनी ही उपमा और उपदा इममें बड़े अच्छ मन्दर जान पड़ते है । प्रकाशमें लाने के योग्य है । इसका मङ्गलाचगा इस कायास्तित्वार्थमाहारं कायाज्ज्ञानं समीहते । प्रकार है: ज्ञानं कर्मणि विनाशाय तन्नाशे परमं पदं॥२१६ णवकारेप्पिणु पंचगरु, दरिदलियदुहकम्मु । - आपदा मूछिनो वारि चुलुकेनापि जीवति । संखेवें पयडक्वाहि, अक्खिय (क्खमि)सावयधम्मु।। आपदा मछला पार पुलुकमा - सम्पादक अम्भः कुम्भसहस्राणां गत जीवःकगेनि कि।२२० m
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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