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________________ ६५० अनेकान्त वर्ष १, किरण ११, १२ उपसंहार श्रद्धा तथा मिथ्यात्वादिका आरोप लगा सकते हैं और धारणाकी अपेक्षा शास्त्रमर्यादाका लेख अधिक ऐसा होना बहुत कुछ स्वाभाविक है। क्योंकि चिरकालम्बा हो गया है परन्तु मुझे जब स्पष्ट मालूम पड़ा कि लीन संस्कार किसी भी नई बातके सामने आनेपर उसे इसके संक्षेपमें अस्पष्टता रहेगी इससे थोड़ा लम्बा फेंका करते हैं-भले ही वह बात कितनी ही अच्छी करनेकी जरूरत पड़ी है । इस लेख में मैंने शास्त्रोंके क्यों न हो । जो लोग वर्तमान जैनशास्त्रोंको सर्वज्ञकी आधार जान कर ही उद्धृत नहीं किये; क्योंकि किसी वाणीद्वारा भरे हुए रिकाडौं-जैसा समझते हैं और भी विषयसम्बंधमें अनुकुल और प्रतिकूल दोनों प्रका- उनकी सभी बातोंका त्रिकालाबाधित अटल सत्य-जैसी रके शास्त्रवाक्य मिल सकते हैं। अथवा एक ही मानते हैं उनके सामने यह लेख एक भिन्न ही प्रकार वाक्यमेंसे दो विरोधी अर्थ घटित किये जा सकते हैं। का विचार प्रस्तुत करता है और इस लिये इससे उस मैंने सामान्य तौर पर बुद्धिगम्य हो ऐमा ही प्रस्तुत प्रकारके श्रद्धालु जगतमें हलचलका पैदा होना कोई करनेका प्रयत्न किया है तो भी मुझे जो कुछ अल्प- अस्वाभाविक नहीं कहा जा सकता। जिस माधुसंस्था स्वल्प जैनशास्त्रका परिचय हुआ है, और वर्तमान पर, उसके सुधारकी दृष्टि से, लेखमें भारी आक्रमण समयका अनुभव मिला है उन दोनोंकी एक वाक्यता किया गया है उसके कुछ कर्णधार अथवावेव्यक्ति तो, मनमें रखकर ही ऊपर की चर्चा की है। फिर भी मेरे जिनके स्वार्थमें इस लेखक विचारोंसे बाधा पड़ती है, इस विचारको विचारनेकी और उसमें से निरर्थकको और भी अधिक रोष धारण कर सकते हैं और अपनी छोड़ देनकी सबको छूट है । जो मुझे मेरे विचारमें सत्ताको लेखकके विरुद्ध प्रयुक्त करनेका जघन्य प्रयत्न भूल समझाएगा वह वयमें तथा जातिमें चाहे जो भी कर सकते हैं। परन्तु जो विचारक हैं उनकी ऐसी होते हुए भी मेरे पादरका पात्र अवश्य होगा। प्रवृत्ति नहीं हो सकती। व धैर्यके साथ,शान्तिके साथ, सम्पादकीय नोट संस्कारोंका पर्दा उठा कर और अच्छा समय निकाल यह लेख लेखक महोदय के कोई दो-चार-दस वर्ष कर इसकी प्रत्येक बातको तोलेंगे, जाँच करेंगे और के ही नहीं किन्तु जीवनभर के अध्ययन, मनन और गंभीरताके साथ विचार करने पर जो बात उन्हें अनुअनुभवनका प्रतिफल जान पड़ता है। इससे आपके चित अथवा बाधित मालूम पड़ेगी उसके विरोधमें, हो अध्ययनकी विशालता तथा गहराईका ही पता नहीं सकेगा तो, कुछ युक्तिपुरस्सर लिखेंगे भी । लेखक चलता बल्कि इस बातका भी बहुत कुछ पता चल महोदयने, लेखके अन्तमें, खुद ही इस बातकं लिये जाता है कि आपकी दृष्टि कितनी विशाल है, विचार- इच्छा व्यक्त की है कि विद्वान् लोग उन्हें उनकी भूल स्वातंत्र्य तथा स्पष्टवादिताको लिये हुए निर्भीकताको सुझाएँ-जो सुझाएँगे वे अवश्य उनके आदरके पात्र आपने कहाँ तक अपनाया है और साम्प्रदायिक कट्टरता बनेंगे। वे विरोधसे डरने अथवा अप्रसन्न होने वाले केआप कितने विरोधी हैं। यह लेख आपके शास्त्रीय तमा नहीं हैं-उन्हें तो विरोधमें ही विकासका मार्ग नजर लौकिक दोनों प्रकारके अनुभवके साथ अनकान्तके आता है । अतः विद्वानोंको चाहिये कि वे इस विषय कितनेही रहस्यको लिये हुए है और इस लिये एक प्र. पर अथवा लेखमें प्रस्तुत किये हुए सभी प्रश्नों पर गकारका मार्मिक तथा विचारणीय लेख है। अभी तक हरा विचार करनेका परिश्रम उठाएँ । 'अनेकान्त' ऐसे इस प्रकारका लेख किसी दूसरे जैन विद्वानकी लेखनीसे सभी यक्तिपरस्सर लेखोंका अभिनन्दन करनेके लिये प्रसूत हुभा हो, मुझे मालूम नहीं । परन्तु यह सब तय्यार है जो इस विषय पर कुछ नया तथा गहरा कुछ होते हुए भी इस लेख में कुछ त्रुटियाँ न हों-कोई प्रकाश डालते हों। परन्तु उनमेंसे कोई भी लेख-मनुमान्ति न हो, यह नहीं कहा जा सकता। इसे पढ़कर कूल हो या प्रतिकूल-क्षोभ, कोप या साम्प्रदायिककितने ही लोग भड़क सकते हैं, चिट सकते हैं, अ. कट्टरताके प्रदर्शनको लिये हुए न होना चाहिये।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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