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________________ पाश्विन, कार्तिक, वीरनि०सं०२४५६] यदि चूरोपमें ऐसा पत्र प्रकाशित होता ६५१ यदि यूरोपमें ऐसा पत्र प्रकाशित होता श्रीमान बाब छोटेलालजी कलकत्ते के एक हो जाता है । जो'भनेकान्त' पत्र इतना उपयोगी प्रसिद्ध जैन रईस हैं, जिनकी फर्मका नाम है 'रामजीवन है और जिसे पढ़ते ही हृदयमें पूर्व गौरव जागत सरावगी ऐंड कम्पनी'।आपधनाढय होने के साथ विद्वान् हो उठता है उसे भी सहायताके लिये मैंह खोभी हैं और इतिहास-विषयमें अच्छी रुचि रखते हैं। लना पड़े-समाजके लिये इससे बढ़कर लज्जा जैनधर्म और जैनसमाजकी श्रापकं हृदय पर चोट है, की बात नहीं है । यदि युरोपमें ऐसा पत्र आप अपनी शक्तिभर प्रायः चुपचाप काम किया प्रकाशित होता तो न जाने यह संस्था कितनी करते हैं, और 'अनेकान्त' के उन पाठकोंमेसे एक हैं शताब्दियों के लिये भमर हो जाती । पर जो हो, जो उस पर्ण मनोयोगके साथ पढ़ते हैं । 'अनकान्त पर यह पत्र तो इसी समाज के लिये प्रकाशित करना है आपकी सम्मतिको पाठक ज्येष्ठ मामकी किरण में पढ़ और इसे जीवित रखने के लिये शक्तिभर उपाय करना चुके हैं। हालमें श्राश्रम तथा 'अनेकान्त' पत्रकी सहा- होगा। अपने समाजमें यह एक चालसी हो गई है कि यतार्थ जो कुछ प्रेरणात्मक पत्र समाज के प्रतिष्ठित पु. बिना किसीको कुछ कहे वह हाथ नहीं बढ़ाता हैरुषों और विद्वानोंको आश्रमसं भेजे गये थे उनमें एक यह रोग पढ़े लिखे लोगोंमें भी है । अस्तु; इसके लिये पत्र आपके भी नाम था । उसके उत्तरमें आपने अपने कुछ Propagandu (प्रचारकार्य) करना चाहिये। ता०७ अक्तबरके पत्रमें जो कुछ इस विषयमें लिखा है । मबसे प्रथम 'पत्र' की जीवनरक्षा करनी चाहिये और और जिस रूपमें अपना हार्दिक भाव व्यक्त किया है उसके लिये श्रापका क्या estimute ( तनमीना ) है वह समाजके जानने योग्य है । अनः उसे नीचे प्रकट सो लिखिये । पत्रके कुल ग्राहक कितने हैं, भामदनी किया जाता है । आशा है समाज इसके महत्वको स. कितनी है तथा वार्षिक व्यय-घाटा कितना है। यदि झेगा और उसके अग्रगण्य अपनी उस कर्तव्यको त्रटि पत्रका जीवन २, ३ वर्षों के लिये कंटकविहीन हो जाय महसूस करेंगे जिसके कारण ऐसी उपयोगी संस्थाको तब फिर अन्य कार्यों के लिये शक्ति व्यय की जाय । भी अपने जीवनके लाले पड़ रहे हैं। आप लिखते हैं:- कृपया पत्रोत्तर शीघ्र दीजियेगा तब मेरेस जो कुछ हो ___ "आपने लिखा कि मेरी ओरसे अभी तक प्रा- मकेगा प्रयत्न करूंगा।" श्रमको कुछ भी सहायता प्राप्त न हुई सो ठीक है । मैंने क्या ही अच्छा हो यदि दूसरे सजनोंके हदयमें आपको लिख दिया था कि मैं इसकी सहायताके लिए भी इस प्रकारके भाव उत्पन्न हों और वे सहयोगके सदा तैयार हूँ। किन्तु एक मनुष्य जो पहलेसे ही लदा लिये अपना हाथ बढ़ाएँ । समाजका भविष्य यदि हुआ है वह एक एक संस्थाकी कितनी सहायता कर अच्छा होगा तो जरूर दूसरों के हृदयमें भी इस प्रकार सकता है तो भी मैं, मेरेसे जहाँ तक हो सकेगा, शीघ्र के भाव उत्पन्न होंगे और फिर इस संस्थाके अमर कुछ सहायता प्रापकी सेवामें भेजेगा। होनेमें कुछ भी देर नहीं लगेगी। जैनसमाजका क्या होना है यह आपके पत्रसे स्पष्ट अधिष्ठाता 'समन्तभद्राश्रय
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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