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शास्त्र मर्यादा
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विविध वाहनोंकी मर्यादित भोगतृष्णा रखने वाले भगवान् के मुख्य उपासक अन्न, वस्त्र वगैरह सभी उत्पन्न करते और उनका व्यापार करते थे। जो मनुष्य दूसरेकी कन्याको विवाह कर घर रक्खे और अपनी कन्या दूसरेको विवाह में धर्मनाश देखे वह मनुष्य या तो मूर्ख होना चाहिये और या चतुर हो तो जैनसमाज में प्रतिष्ठित स्थान भोगने वाला नहीं होना चाहिये । जो मनुष्य कोयला, लकड़ी, चमड़ा और यंत्रोंका थोक उपयोग करे वह मनुष्य प्रकट रूपसे यदि वेसे व्यापारका त्याग करता होगा तो इसका अर्थ यही है कि वह दूसरोंके पास वैसे व्यापार कराता है । करने में ही अधिक दोष है और कराने में तथा सम्मति देने में कम दोष है ऐसा कुछ एकान्तिक कथन जैन शास्त्र में नहीं। अनेक बार करने की अपेक्षा कराने तथा सम्मति देने में अधिक दोष होने का संभव जैनशास्त्र मानता है । जो बौद्ध मांसका धंधा करनेमें पाप मान कर वैसा धंधा खुद न करते हुए मांसके मात्र भोजनको निष्पाप मानते हैं उन बौद्धों यदि जैनशास्त्र ऐसा कहता हो कि " 'तुम भले ही धंधा न करो परन्तु तुम्हारे द्वारा उपयोग में आते हुए मांसको तय्यार करने वाले लोगों के पापमें तुम भागीदार हो ही," तो क्या वेही निष्पक्ष जैनशास्त्र केवल कुलधर्म होने के कारण जैनोंका यह बात कहते हुए हिचकेंगे ? नहीं, कभी नहीं। वे लो खुल्लमखुल्ला कहेंगे कि यातां भांग्य चीजांका त्याग करी और त्याग न करो तो जैसे उनके उत्पन्न करने और उनके व्यापार करनेमें पाप समझते हो वैसे दूसरों द्वारा तय्यार हुई और दूसरोंके द्वारा पूरी की जाती उन चीज़ो के भांग में भी उतना ही पाप समझो। जैनशास्त्र तुमको अपनी मर्यादा बतलाएगा कि दोष या पापका सम्बन्ध भांगवृत्ति के साथ है। मात्र चीजोंके सम्बंध के साथ नहीं। जिस ज्रमाने (काल) में मजदूरी ही रोटी है. ऐसा सूत्र जगद्व्यापी होता होगा उस जमाने में समाज की अनिवार्य जरूरियात वाला मनुष्य अन्न, वस्त्र, रस, मकान, आदिको खुद उत्पन्न करनेमें और उनका खुद धंधा करनेमें दोष मानने वालेकां या तो अविचारी मानेगा या धर्ममूद ।
अश्विन, कार्तिक, वीरनि० सं०२४५६]
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गुरु उत्पन्न करने के लिये उनकी विकृत गुरुत्ववाली संस्था के साथ आज नहीं तो कल समाजको असहकार किये ही छुटकारा है। हाँ, गुरुसंस्था में यदि कोई एकाध माईका लाल सच्चा गुरु जीवित होगा तो ऐसे कठोर प्रयोग के पहले ही गुरुसंस्थाको बर्बादी से बचा लेगा । जो व्यक्ति अन्तरराष्ट्रीय शान्तिपरिषद-जैसी परिषदों में उपस्थित हो कर जगतका समाधान हो सके ऐसी रीति से हिंसाका तत्व समझा सकेगा, अथवा अपने हिंसाबल पर वैसी परिषदोंके हिमायतियोंको अपने उपाश्रय में आकर्षित कर सकेगा वही इस समय पीछे सच्चा जैनगुरु बन सकेगा । इस समयका एक साधारण जगत प्रथमकी अल्पता में से मुक्त हो कर विशालता में जाता है, वह कोई जातपाँत, सम्प्रदाय, परम्परा, वेप या भापाकी स्नास पर्वाह किये बिना ही मात्र शुद्धज्ञान और शुद्ध त्यागका मार्ग देखता हुआ खड़ा है। इससे यदि वर्तमानकी गुरुसंस्था हमारी शक्तिवर्धक होने के बदल शक्तिबाधक ही होती हो तो उसकी और जैन समाजकी भलाई के लिये पहलेसे पहले अवसर पर समझदार मनुष्यको उसकी साथ असहकार करना यही एक मार्ग रहता है । यदि ऐसा मार्ग पकड़नेकी परवानगी जैनशास्त्र मेसे ही प्राप्त करनी हो तो भी वह सुलभ है। गुलामी वृत्ति नवीन रचती नहीं और प्राचीन को सुधारती या फेंकती नहीं । इस वृत्ति के साथ भय और लालच की सेना होती है। जिसे मद्गुणों की प्रतिष्ठा करनी होती है उसे गुलामी वृत्तिका बरक़ा फेंक करके भी प्रेम तथा नम्रता कायम रखते हुए ही विचार करना उचित मालूम होता है।
-विषयक अन्तिम प्रश्नके सम्बंध मे जैनशास्त्र - की मर्यादा बहुत ही संक्षिम तथा स्पर्शरूप होते हुए भी सच्चा खुलासा करती है और वह यह कि जिस चीज का धंधा धर्मविरुद्ध या नीतिविरुद्ध हो तो उस चीज़ का उपभोग भी धर्म और नीतिविरुद्ध है। जैसे मांस और मद्य जैन परम्परा के लिये वर्ज्य बतलाये गये हैं तो उनका व्यापार भी उतना ही निषेधपात्र है । अमुक वस्तुका व्यापार समाज न करे तो उसे उसका उपभोग भी छोड़ देना चाहिये । इसी कारण से अन्न, वस्त्र और