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________________ वैशाख,ज्येष्ठ, वीनि०सं० २४५६] जैनधर्मका अहिंसातत्त्व पथा। इसलिए उसके युद्ध-विषयक सामध्यके वह सुनकर बहुत संदिग्ध हुई, परन्तु उस समय अन्य में किसीको निश्चित विश्वास नहीं था। इधर एक कोई विचार करनेका अवकाश नहीं था, इसलिए भावी नां गजा स्वयं अनुपस्थित था, दूसरे राज्यमें कोई के ऊपर आधार रख कर वह मौन रही। दूमरे दिन सा अन्य पराक्रमी पुरुष न था और तीसरे राज्यमें प्रातःकाल ही से युद्धका प्रारम्भ हुा । योग्य मन्धि यथेष्ट सैन्य भीनहीं था । इसलिए रानीको बड़ी चिन्ता पाकर दण्डनायक आभने इस शौर्य और चातुर्यसे शत्रु हुई। उसने किसी विश्वस्त और योग्य मनुष्यसे दण्ड- पर आक्रमण किया कि, जिससे क्षण भरमें शत्रुके नायक श्राभूकी क्षमताका कुछ हाल जान कर स्वयं उसे सैन्यका भारी संहार हो गया और उसके नायकन अपने पास बलाया और नगर पर आई हुई आपत्तिके अपने शस्त्र नीचे रख कर युद्ध बन्द करनेकी प्रार्थना मम्बन्धमें क्या उपाय किया जाय, इसकी सलाह पूछी। की। भाभका इस प्रकार विजय हुमा देखकर प्रणनब दण्डनायकने कहा कि, यदि महारानीका मुझ पर हिलपुरकी प्रजामें जयजयका आनन्द फैल गया । विश्वास हो और युद्धसम्बन्धी पूरी सत्ता मुझे सौंप रानीने बड़े मम्मानपूर्वक उसका स्वागत किया और दी जाय तो, मुझे विश्वास है कि, मैं अपने देशको फिर बड़ा दरबार करके राजा और प्रजाकी तरफम शत्रुके हाथसे बाल बाल बचा लॅगा । प्राभके इस उत्सा- उस योग्य मान दिया गया। उस समय हमकर रानी हजनक कथनको सुन कर रानी खुश हुई और उसने न दण्डनायकसे कहा कि-सेनाधिपति, जब युद्धको पद्धसम्बन्धी सम्पूर्ण सत्ता उसको देकर युद्धकी घोषणा व्यह रचना करते करते बीच ही में आप-"रंगिदिया कर दी। दण्डनायक आभने उमी क्षण सैनिक संगठन बेइंदिया" बोलने लग गये थे, तब तो आपके मैनिको कर लड़ाईके मैदानमें डेरा किया । दूमरे दिन प्रातः को ही यह मन्देह हो गया था कि, आपके जैमा धर्मकालसे युद्ध शुरू होने वाला था। पहले दिन अपनी शील और अहिमाप्रिय पाप मुसलमानोंके साथ लड़न मनाका जमाव करते करते उसे सन्ध्या हो गई। वह के इस कर कार्यमें कैमे धैर्य रम्ब मकेगा। परन्तु श्राप प्रतधारी श्रावक था, इसलिए प्रतिदिन उभय काल की इस वीरनाको दम्यकर मबको आश्चर्य-निमग्न होना प्रतिक्रमण करनेका उसका नियम था। सन्ध्या पड़ने पडा है। यह सुनकर उम कर्तव्यदक्ष दण्डनायकने पर प्रतिक्रमणका समय हुआ । उसने कहीं एकान्तमें कहा कि-महारानी, मंग जो अहिमावत है, वह जाकर वैसा करनेका विचार किया । परन्तु उमी क्षण मेरी आत्माके माथ मम्बन्ध रखता है। मैंने जो "रंगिमालम हुआ कि, उस समय उसका वहाँ में अन्यत्र दिया बेदिया" के वध न करनका नाम लिया है, वह जाना इच्छित कार्यमें विघ्न कर होगा । इमलिए उसने अपने स्वार्थकी अपेक्षामहै। देशको रक्षाकालए भार वहीं हाथीके हौदे पर बैठे ही बैठे एकामनापूर्वक प्रति- गाज्यकी अामाकं लिए यदि मुझे वध-कर्मकी आवश्यकमण करना शुरू कर दिया। जब वह प्रतिक्रमण में कना पड़े. ना वैमा करना मेग कर्तव्य है । मंग शरीर प्रानवाल-"ज में जीवा विराहियाएगिदियाबहंदिया" गडकी सम्पत्ति है। इम लिए. गष्टकी श्रात्रा और : यादि पाठका उच्चारण कर रहा था, तब किसी मैनिक आवश्यकतानमार उमका उपयोग होना ही चाहिए । ने उसे सुन कर किसी अन्य अफसरमे कहा कि- शरीरम्य आत्मा या मन मेरी निजी सम्पत्ति है। उम देखिए जनाब, हमारे मेनाधिपति साहब तो इस लड़ाई म्वार्थीय हिमा भावमै अलिम रखना यही अहिंसा मंदानमें भी, जहाँ पर शलालको भनाभन होनही बतका लक्षण है, इत्यादि। इस ऐतिहामिक भोर है, मारो मारी की पुकारें मचाई जा रही हैं, वहाँ रसिक उदाहरणमे विज्ञ पाठक भली भाँति ममम "एंगिदिया बेइंदिया" कर रहे हैं। नरम नरम सांग सकेंगे कि, जैन गहस्थके पालने योग्य पहिमाचनका वानेवाले ये श्रावक साहब क्या बहादुरी दिखावेंगे। यथार्थ स्वरूप क्या है। धीरे धीरे यह बात खाम गनीके कान तक पहुंची।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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