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________________ ३६० अनेकान्त उत्तरपुराण में पूर्वापर विरोध [ ले० प्रो० बनारसीदासजी जैन, एम.ए., पी.एच. डी. ] एक दिन मैं श्राचार्य गुणभद्र रचित उत्तरपुराण का बहुत स्वाध्याय कर रहा था और जब पर्व ७४ में यह पढ़ा कि राजा श्रेणिक राजा कूणिकका पुत्र था तो मुझे | आश्चर्य हुआ क्योंकि श्वेताम्बर प्रन्थोंमें श्रेणिक की कूणिकका पिता बतलाया है। मैंने सोचा कि गायव दिगम्बर संप्रदाय की यही धारणा होगी परन्तु जब आगे के पर्व पढ़े तो मेरा यह विचार ठीक न निकला, क्योंकि पर्व ७६ में कूरिणककी श्रेणिकका पुत्र लिखा है । पर्व ७४ में क्रूणिककी श्रेणिकका पिता कहना और पूर्व ७६ में कूणिक को श्रेणिकका पुत्र कहना परस्पर विरोधी है। कभी कभी एक ही संप्रदाय के दो लेख में या एक ही लेखक के दो प्रन्थों में परस्पर विरोध पाया जाता है परन्तु एक ही कर्ता के एक ही और एक ही प्रकरण में इस प्रकारका पर्वापर विरोध विस्मयजनक है । [वर्ष १, किरण ६, ७ १ स्याद्वाद मन्यमाला २०८० लालाराम जैनकृत हिंदी अनुवादसहित इन्दौर म० १६७५ ॥ लेखक महाशयका इसे 'पर्व' पर विरोध' अथवा 'परस्पर विरोध' मना भोर उस पर विग्मय तथा भाव प्रकट करना ठीक नहीं है। 'पूर्वापर विशेष भादोषमं दूषित तो यह किपी तरह तब हो मकता जब कि कर्ता किताको एक जगह 'कूणिक' और सरी जगह कुछ भौर ही लिखा होता अथवा श्रेणिकके पिता और पुल दोने के व्यक्तित्वको एक ही सूचित किया होता। महज नाम की समानता से दोनोंका व्यक्तित्व एक नहीं हो जाता। एक नाम के अनेक व्यक्ति होते हैं। राष्ट्रकूट भादि कितने ही राजवंशों में एक एक नामके कई कई राजा हो गये हैं। कितने ही राजघरानों तथा कस्बों में जो नाम बाबाका होता है वही पोतेका रक्खा जाता है। 999. अब पाठकों की सूचना के लिये इन परस्पर विरोधी वचनोंको संक्षेपसे नीचे उद्धृत किया जाता है । दिनम्बर संप्रदाय की धारणा है X कि प्रत्येक तीर्थकर ने अपने अपने शासन में ६३ शलाका पुरुषोंका इतिहास वर्णन किया और इसको उनके गणधरोंने प्रकाशित किया। इस धारणा के अनुसार इस अवसर्पिणी काल के अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामीने भी ६५ शलाका पुरुषों का इतिहास वर्णन किया जिसे उनके मुख्य गणधर गौतम मुनिने प्रकाशित किया । इम प्रकाशन कार्य के लिये प्रार्थना राजा श्रेणिककी ओरसे हुई, इसीलिये पुराणों में कई स्थानों पर गौतम मुनि राजा श्रेणिक को संबोधन करते हैं । जब ६३ शलाका पुरुषोंका इतिहास वर्णन करते करते गोतम मुनिने यह कहा कि हे राजन् ! एक बार भगवान् महावीर स्वामी विहार करते हुए राजगृह के निकट विपुलाचल पर्वत पर आकर विराजमान हुए 1 आज भी दक्षिणमें जिधर ग्रंथकार हुए हैं ऐसी प्रथा पाई जाती है इस समय मेरे सामने ट्राकोरे के एक महाशय वेंकटाचलजी उपस्थित हैं, उनका यह नाम वही है जो उनके पितामह का था। हो सकता है कि ग्रन्थकारका यह नाम देना किसी प्रकारकी गलतीको लिये हुए हो क्योंकि दिगम्बर प्रथोंमें श्रेणिकके पिताके स्थान पर 'प्रश्रेणिक' नाम भी पाया जाता है । परन्तु ग्रंथकार के इस कथन पर 'पर्व पर विरोध' का आरोप नहीं लगाया जा सकता। -सम्पादक x क्या ताम्बर सम्प्रदायकी ऐसी कोई धारणा नहीं है, जिम से एक सम्प्रदायविशेषके नाम के साथ उसके उदेख करने की अस्पत समझी गई? 'पउमचरिय' भाविके देखनेसे तो ऐसा कुछ मालूम नहीं होता । -सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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