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का उपद्रव उठते देख पटना, साकेत, पंचाल आदि छोड़ता हुआ मथुरा भागा और मध्य देश मात्र छोड़ वहाँ से निकल गया । मैदान में खारवेल और पुष्यमित्र तथा शातकण॒ि रह गए। पुष्यमित्रने फिरसे अश्वमेध मनाया । अपने लड़कों द्वारा उन्होंने वैरराज्य स्थापित किया X, अर्थात् स्वयं सम्राट् न हुए, उपराजाओं या गवर्नरों द्वारा मुल्क और धर्मके नाममें स्वयं अपने को सिर्फ सेनापति कहते हुए राज्य करने लगे यहाँ भी चढ़ाईके चार वर्ष बाद खारवेल ने अपने घरसे निकल कर फिर मगध पर धावा किया और पटने में पहुँच हाथियों सहित सुगांगप्रासादमें डेरा डाला और मगधके प्रांतिक शासक बृहस्पतिमित्र से, जो पुष्यमित्रके आठ बेटोंमें मालूम होता है, अपने पैरकी वन्दना कराई। इस महाविजय के बाद जब कि शुंग और सातवाहन तथा उत्तरापथके यवन सब दूब गए, स्वारबेलने, जो राजसूय पहले ही कर चुके थे एक नये प्रकारका पूर्ण ठाना। उसे जैनधर्मका महा धर्मानुछान कहना चाहिए।
उन्होंने भारतवर्ष भरके जैनयवियों, जैनतपस्वियों, जैनऋषियों और पंडितों को बुलाकर एक धर्मसम्मेलन किया । इसमें इन्होंने जैन आगमको अंगों में विभक्त करा पुनरुत्पादित कराया । ये अंग मौर्य कालमें कलिंग देश तथा और देशों में लुप्त होगए थे । अंगसप्तिक और तुरीय अर्थात् ११ अंग प्राकृत में, जिसमें ६४ अक्षर की वर्णमाला मानी जाती थी, सम्मेलन में संकलित किये गए। खारवेल को 'महाविजयों' की पदवी के साथ 'खेमराजा' 'मिस्लुराजा' 'धर्मराजा' की पदवी अखिल भारतवर्षीय जैन - संघने मानो दी। क्योंकि शिलालेख में सबसे बड़ा और अंतिम चरमकार्य राजाका यही माना गया है और जैन संचयन और अंगसप्तिक तुरीय संपादन के बाद ये पदवियाँ जैन-लेखकने उनके नामके साथ जोड़ी है।
अनेकान्त
[वर्ष १, किरण ४ लिखने वाला भी जैन था । यह लेखके श्रीगणेश नमो अरहतानं नमो सबसिधानं से साबित है ।
इस लेखकी १४ वीं पंक्तिमें लिखा है कि राजा ने कुछ जैनसाधुओं को रेशमी कपड़े और उजले कपड़े नजर किए - अरहयते परवीन संसितेहि कायनिसदीयाय यापनावकेहि राजभितिनि चिन बनान वासासितानि अर्थात् अर्धयते प्रक्षीणसंसृतिभ्यःकायनिषीद्यां यापज्ञापकेभ्यः राजभृतीश्वीन वस्त्राणि वासांसि सितानि ।
इससे यह विदित होता है कि श्वेताम्बर वस्त्रधारण करने वाले जैन साधु, जो कदाचित यापज्ञापक कहलाते थे, खारवेल के समय में अर्थात् प्रायः १७० ई०पू० श्वेतांबर जैनशाखा के वे पूर्वरूप थे । चीन गिलगिट ( ११० विक्रमाब्द पूर्व) भारत में वर्त्तमान थे, मानो की एक जातिको कहते थे । इन्हें अब शीन कहते हैं। ये सदा से रेशम बनाते हैं। खारवेलने कुमारीपर्वतपर, जहाँ पहले महावीर स्वामी या कोई दूसरे जिन उपदेश दे चुके थे क्योंकि उस पर्वत जिचक ( सुप्रवृत्तविजयचक्र) कहा है, स्वयं कुछ दिन तपस्या, व्रत, उपासक रूप से किया और लिखा है कि जीव देह पस्या, जीवदेहका दार्शनिक विचार आदि उसी समय का भेद उन्होंने समझा । इससे यह सिद्ध हुआ कि तसे अथवा उसके आगे से जैनधर्म में चला जाता है।
नंदराज अर्थात् नन्दवर्द्धन कलिंगसे" का लिंगाजिन" ले एथे । इससे जिनविम्बोंका होना तथा जैनधर्मका पौने तीन सौ वर्ष खारवेल के भी पहले कलिंगमें प्रचलित रहना और जैनधर्म की प्राचीनता प्रतिष्ठित होती है।
वंश का नाम ऐल चेदिवंश था। इनकी दो रानियों का खारवेल के पूर्वपुरुष का नाम महामेघवाहन और नाम लेखमें है— एक बजिर घरवाली थीं, बजिरघर अब बैरागढ़ (मध्यप्रदेश) कहा जाता है और दूसरी सिंह पथ यो सिंहप्रस्थकी सिंधुडानामक थीं जिनके नाम पर एक गिरिगुहाप्रासाद, जो हाथीगुफा के पास है, उन्होंने बनवाया । इसे अब रानीनौर कहते हैं। इन नामों का पता किसी जैनमन्थमें मिले तो मुझे उसकी सूचना कृपा कर दी जावे ।
* यह गर्मसहिता, झीफा और महाभाष्यसे साबित है। X पुष्यमित्रस्तु सेनानीद्धृत्य सबृहद्रथम् ।
कारविष्यति वैराज्यं समाः पहिं सचैष ॥ (वायु- - किंतु वसरे पुरायोंमें (यथा मत्स्य०) पटर्भियाति समा' है) पुष्यमित्रताश्याही भविष्यन्ति कम बुधाः। (वायु)