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________________ ९९ पौष, वीर नि०सं०२४५६ देवगढ़ के नमूने दिए हैं। इसको साखानामदीने लिखाया था शिलालेख है जोसं०११५४ का है। इसको राजा 'वत्स' इस मंदिरके आगे एक खुला दालान (हाल ) है जो ने खुदवाया था, जो कीर्तिवर्मा चंदेलका वजीराजम ४२ फुट ३ इंच वर्ग है । इसमें ६, ६ खम्भोंकी छह था । उसीके नामसे कीर्तिगिरि दुर्ग कहलाता है। क़तारें हैं और इसके बीचोंबीच में एक चबूतरा है, नहर घाटीके किनारे भी एक छोटासा सात लाईनोंका जिम पर मूर्तियाँ रक्खी हुई हैं यहां पर ही पुजारी शिलालेख है । यहां पर एक गुफा भी है, जिसको नित्य पूजन करता है । इस हालके सामने १६॥ फुटकी 'सिद्ध' की गुफा भी कहते हैं । यह पहाड़में खुदी हुई दूरी पर एक मंडप (छत्र) चार खम्भों पर स्थिति है। है जिसका मार्ग पहाड़ीके ऊपर से सीढ़ीद्वारा नीचेको इन खम्भोंमें से एक खम्भेके ऊपर राजा भोजदेवका है। इसके तीन द्वार हैं । दो खम्भों पर छत सुरक्षित शिलालेख संवत ९१९ या शक सं०७८४ का पाया है। इस गुफाके बाहर एक छोटासा लेख गप्प-समयका जाता है। मंदिर नं० १२ के मंडपमें तीर्थंकर ऋषभके है, एक दूसरा लेख भी है जिसमें लिखा है कि राजा द्वितीय पुत्र गोमटश्वर या बाहुबलिकी मूर्ति है जिसका 'वीर' ने सं०१३४२ में 'कुरार' को जीता था। समय ११वीं सदी का दिया हुआ है । इस स्थानको देवगढ़में दोसौके लग भग शिलालेख मिले हैं। छोटा श्रवणबेलगोल कहें तो अत्यक्ति न होगी। उनमेंसे १५७ ऐतिहासिक महत्वके हैं, जिनका वर्णन एक सहस्रकूट चैत्यालय पाषाणका है जिसमें एक नक़शोंमें दिया गया है। इनको पुरातत्त्व विभागले हजार आठ जैन मूर्तियाँ पाई जाती हैं । यह समूचा संकलित किया है, जो बहुत ही निकट भविष्यमें प्रकाश बड़ा ही मनोज्ञ तथा सुन्दर है । यह मैं पहले ही में आने वाले हैं। इनका महत्व जैनकला और जैनबता चुका हूँ कि मंदिरोमें और उनके बाहर सैंकड़ों कथाओं के लिए विशेषम्पर्म है। क्या हजारों जैन मूर्तियाँ पाई जाती हैं ।मूर्तियाँ ऐसी दवगढ प्रान्तमें पहिले सहरियोंका आधिपत्य था । इन सुन्दर तथा मनोज्ञ हैं कि उनके जैसे अवयव वाली ___पर गौंडोंन विजय पाई । गौंडोंको परास्त कर गुप्तवंशीय मूर्तियाँ अन्यत्र कहीं भी नहीं पाई जाती-मंदिगेंऔर र राजाओंके हाथमें देवगढ़ आया । कन्धगुन आदि खम्भों पर तो शिलालेख हैं ही परन्तु दो जैन मूर्तियों । इम वंशके कई राजाओंके शिलालेख देवगढ़में अब पर भी सं० १४८१ के लेख हैं जिनसे प्रतीत होता है नक पाए जाते हैं। गुणवंशके अनन्तर कन्नौजकं भाजकि उनकी प्रतिष्ठा मंडपपुरके शाह आलमके गज्यमें वंशी गजाओं ने इस प्रान्तका जीना। इसके पश्चानचंदेल एक जैनभक्तने कराई थी। इस व्यक्ति को मालवाके वंशी राजाओंके हाथमें देवगढ़ आया-इन्हींके दाद मांडके बादशाह सुलतान हुमैनका धोरी कहते हैं। धरमतदसिंहन यहां आकर विश्राम लिया था । मन पर्वतके दक्षिणकी और दो सीढियाँ है जिनका १२९४ ई० में आपका स्वर्गवास हुआ था-उम समय राजघाटी और नहरघाटी कहते हैं। बर्सात का पानी देवगढ़ एक विशाल तथा सुन्दर नगर था-इसका प्रकाश इन्हीं में चला जाता है । ये घाटियाँ चट्टानसे खोदी सूर्य देदीप्यमान था । इसी कुटम्बन दतिया का किला गई हैं जिन पर खुदाईकी कारीगरा पाई जाती है। बनवाया था । ललितपुरके आसपास इसवंशके अनेक राजघाटीके किनारे एक आठ लाईनोंका छोटामा शिलालेख अब तक पाए जाते हैं। इस वंशकी गज
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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