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________________ पाश्विन, कार्तिक,वीरनि०सं०२४५६] , खारवेल और हिमवन्त थेरावली ६२९ प्रमाणित हो जाय, तो हमें उसके माननेमें भी कोई कल्पी 'मुनियोंका उसमें जो उल्लेख हुआ है, उससे उस आपत्ति न होगी। की प्राचीनता और सत्यता सिद्ध नहीं होती। वह तो (६) छठी आलोचनामें मुनिजी 'हरिवंशपुराण' में उसके लेखकके माया-कौशल को प्रगट करता है । वर्णित कलिङ्ग के राजाका 'जितशत्रु' नाम कोई विशेष किसी जाली नई चीजको प्राचीन और मौलिक सिद्ध नाम नहीं मानते । किन्तु यह उनकी भूल है। हरिवंश- करनेके लिये उसमें ऐसे उल्लेखोंका मिलना स्वाभाविक पुराणमें यह नाम साधारण रूपमें व्यवहृत हुआ नहीं है। अतः इस सम्बंधमें कुछ अधिक लिखना फ़िजूल है। मिलता । श्वेताम्बरोंके शास्त्रोंमें ऐसा नियम भले ही (८)आठवीं बालोचनामें मुनिजी मार्य सुस्थित और हो, परन्तु वह दिगम्बर ग्रंथोंसे लागू नहीं हो सकताx, सुप्रतिबुद्धके वीरनिर्वाणसे ३७२ वर्ष बादके समयको, जब तक कि दिगम्बर साहित्यमें उस नियम की मा- जो 'जैनसाहित्य-संशोधक' भाग १ परिशिष्ट पृ०९ न्यता सिद्ध न कर दी जाय । अतः हमारी यह दलील पर की 'वृद्ध पट्टावली' के अनुसार प्रगट किया गयाहै, भी ज्यों की त्यों वजनदार रहती है। अशुद्ध बताते हैं । यदि यह ऐसे ही मान लिया जाय (७) सातवीं पालोचनामें मुनिजी हम पर साम्प्र- तो भी उपर्यक्त विवेचनको देखते हुएथेरावलीकाजाली दायिकताका लाञ्छन लगाते हैं, किन्तु वह कितना होनाबाधित नहीं होता है। अचल गच्छकी मेरुतुंगनिस्सार है यह हम इस लेख के प्रारम्भमें ही प्रगट कर कृत पट्टावलीकी जब तक अच्छी तरह जाँच नहोजाय, चुके हैं । थेगवलीके जाली बताने पर आप हमें सा- तब तक उसके विषयमें कुछ कहना फ़िजूल है। म्प्रदायिकताके पोषक बताते हैं; किन्तु श्रापका यह (९) नवीं पालोचनामें एक श्वेताम्बर पट्टावलीमें लिखना तब ही शोभा देता जब आप ऐसे अपवादसे दिगम्बर आचार्यों के नामोंका मिलना मुनिजी ठीक वश्चित होते ! मैंने तो थेरावलीके एक अंशको मिथ्या समझते हैं । यदि यही बात है तो श्वेताम्बगेकी भन्य प्रमाणित करके ही उसे जाली घोषित किया था, किंतु प्राचीन पट्टावलियों में जैसे कल्पसूत्र की स्थविरालीमें आप तो 'उत्तरपुगण'को बिनादेख-भाले ही उसे अप्रा- ये नाम क्यों नहीं मिलते हैं ? साथ ही यह स्पष्ट है माणिक प्रगट करते हुए मालूम होते हैं । अब भला कि खारवेलने अपनी सभा अपनी मृत्युमे पहले बुलाई बताइये, आप जैसे साधु पुरुषोंके लिये मैं क्या कहूँ ? थी और वी०नि० सं० ३३०में थेरावली उनकी मृत्यु हुई थेरावलीका प्रगट हुआ अंश तो पूर्णत: जाली बताती है । तब इस दशामें न धर्मसेनाचार्य और न करार दे ही दिया गया है । इस हालतमें जिन- ही प्रकट हुई है और न जिनविजय जीका यह युक्तिवाद ही सामने xयह दावा लेखक महाशयके प्रतिसाहसको व्यक्त करता है. माया है जिसके माधार पर उन्होंने उसका जाली-बनावटी होना -सम्पादक क्योंकि दिगम्बर साहित्यमें 'भमोघवर्ष', 'वीरमार्तगडी से विशेष सक्ति किया है। xपाठय युक्तिवादके बाधित होनेमें तब कोई सन्देह नहीं अथवा उपनामांके द्वारा भी राजादिर्कोके नामोंका उरेख मिलता है और -सम्पादक . साधसम्प्रदायके ऐसे नामांकी तो कुछ पूछिये ही नहीं, उनमेंसे कितनों * क्या उक्त 'युद्ध पहावली' की अच्छी तरहसे जांच हो गई होके असली नामका तो अभी तक कोई पता भी नहीं है। सम्पादक थी. जिसको अपनी युक्ति का प्राधार बनाया गया था ? यदि नहीं यह बात ऐसी है जिसे कोई साम्प्रदायिकताभिनिवेशी ही तो फितक्या लेखक के उसे प्रमायमें पेश करनेको भी फिजूल ही मानकर प्रसन्न हो सकता है। क्योंकि अभी तक न तो वह येरावली मममा जाय ? -सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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