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अनेकान्त
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नक्षत्राचार्य अंगके धारक होने रूपमें उसमें सम्मिलित हो सकते हैं । और चूँकि वह सभा अंग ज्ञान के उद्धार के लिए एकत्र की गई थी, इसलिए उसमें अंगज्ञानियोंका पहुँचना विशेष कर उचित जान कर ही श्वेताम्वर रावलीकारने उनका उल्लेख किया कहना ठीक है । तब साधारण रूप में उनका पहुँचना न पहुँचना बराबर है । इसके सिवाय उमास्वाति और श्यामा
* इस प्रत्युत्तरस इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि लेखक महाशयने जो 'देवाचार्य' तथा 'बुद्धिलिंगाचार्य' का सभामें सम्मिलित होना ही असंभव क़रार दिया था वह अब उन्हें अपनी भूल जान पद्म है- भले ही वे स्पष्ट शब्दोंमें उसे स्वीकार नहीं कर संक । साथ ही, यह भी उन्हें मालूम हो गया है कि 'घसनाचार्य और 'नक्षत्राचार्य का क्रमशः दशपूर्व तथा एकादशांगंक पाठी हनि पहले --- प्राचार्यादिके रूप में उक्त सभामें सम्मिलित होना भी कोई बाधित नहीं है । परन्तु अब आपका कन्ना कहने का भाशय-यह है कि ये दोनों भाचार्य अज्ञानके धारक होनेके रूपमें उस सभा में शामिल नहीं हो सकते थे, बिना गज्ञानंक शामिल होना-न होना बराबर था, थेरावलीकार तब उनका उ:ख न करता क्योंकि वह सभा भंगज्ञानके उद्वारके लिये एकत्र की गई थी ।"
[वर्ष १, किरण ११, १२
चार्यके विषय में जो कुछ कहा गया है, वह शङ्कासे नाली नहीं है । अतः उससे हमारी दलील में कुछ भी बाधा नहीं पहुँचती !
इस युक्तिवाद सम्बन्ध में अपने पाठकोंको इतना ही बतला देना चाहता हूँ कि प्रथम तो वह सभा मात्र अंगज्ञान के उद्वारके लिये नीं की गई थी, उसके दो मुख्य उद्देश्य बतलाये गये हैं - १ जेनमिद्धान्तां का संग्रह और २ जैनधर्मक विस्तारका विचार ( भनेकान्त १०२२८ ) । दूसरे, किती भंग पूर्णज्ञानी यदि मौजूद हों तो उस गके उद्धारके लिये सभा जाड़ने का कोई अर्थ हो नहीं रहता- वह निरर्थक हो जाती है। तीसरे, थेराव नीमें उस सभाको योजनानुसार जिस 'टष्टिवाद' के भव शिष्ट भागको संग्रह करनेका उल्लेख है वह बारहवां अंग है और उस का पूर्णाज्ञानी उस वक्त कोई भी नहीं था-धर्ममन और नक्षत्राचा किसी समय भी उसके पूर्गाज्ञानी नहीं हुए- उस अंगका जो कुछ बचा खुचा अंश जितना जिस जिस साधुको स्मरण था वही उनके पाससे लिख कर संग्रह किया गया है; और यह संग्रह भी स्थविरोंके द्वारा हुआ है - जिन कल्पियोंके द्वारा नहीं। धसेन और नक्षत्राचाके पाससे भी कुछ प्रशोका संग्रह किया जाना संभव है। ऐसी
इस प्रकार हम देखते हैं कि जो दलीलें हमने उक्त येगवलीके प्रगट हुए अंशको मिथ्या साबित करने के लिये उपस्थित की थीं, वे ऐसी ही वजनदार अब भी हैं और वे इस बात को मानने के लिये काफी हैं कि थेरावलीका यह अंश अवश्य ही जाली है । हमारी यह मान्यता आज श्वे० मुनि श्रीजिनविजयजी के कथन में भी पुष्ट हो रही है, जिन्होंने स्वयं उस थेगवलीका देख कर उसके उल्लिखित अंश को प्रक्षिप्त और जाली घोषित किया है। इस अवस्था में अधिक लिखना व्यर्थ है ।
अब रही बात 'हरिवंशपुराण' के उल्लेखानुसार खाखेलका सम्बंध ऐलेय से बतानेकी, सो इस विषय में किसी भी विद्वान्की आपत्ति करना कुछ महत्व नहीं रखता XI यह ग्यारह लाख वर्षकी पुरानी बात
हालत में लेखक महाशयके उक्त युक्तिवादका कुछ भी मूल्य नहीं रहता - न उक्त दोनों आचार्यका दशपूर्वादिक पाठी होने से पहले सभा सम्मिलित होना चाति ठहरता है और न थेरावनीकारक उल्लेखमें ही वेगी कोई बाधा भाती है ।
इसके सिवाय समयनिर्देशानुसार, धसिनको ता दरापूर्व का ज्ञान भी खारवलंक जीवनकालमें हो गया था और लेखक महाशयने अपने पहले लेसमें यह स्वीकार भी किया था कि "मेनाचार्य ही केवल उस सभा में उपस्थित कहे जा सकते हैं " ( अनेकान्त पृ० ३००); तब नहीं मालूम अपने पूर्व कथन के भी विरुद्ध यह आपका उनकी उपस्थितिम भी इनकार करना क्या अर्थ रखता है !!
- सम्पादक
* यह भी वही प्रसन्नता तथा आत्मसन्तुष्टि है जिसका पिछले कुछ फुटनोटों में उल्लेख किया गया है । -सम्पादक x इस प्रकारका लिखना लेखक के कोरे अहंकार, क्वाग्रह तथा
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