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________________ वीरनि० सं० २५५६ ] प्रकार से बतलाई है उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है:“सौराष्ट्र देशके मध्य उर्जयन्त गिरिके निकट गिरिनगर ( जूनागढ़ ?) नामके पत्तनमें घासन भव्य, स्वहितार्थी, द्विजकुलोत्पन्न, श्वेताम्बरभक्त ऐसा 'सिद्धय्य' नाम का एक विद्वान् श्वेताम्बर मतके अनुकूल सकल शास्त्र का जानने वाला था । उसने 'दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्ष मार्गः' यह एक सूत्र बनाया और उसे एक पाटिये पर लिख छोड़ा | एक समय चर्यार्थ श्रीगृध पिच्छाचार्य 'उमास्वति' नामके धारक मुनिवर वहाँ पर आये और उन्होंने आहार लेनेके पश्चात् पाटिये को देख कर उसमें उक्त सूत्र के पहले 'सम्यक' शब्द जोड़ दिया। जब वह (सिद्धय्य ) विद्वान बाहर से अपने घर आया और उसने पाटिये पर 'सम्यक्' शब्द लगा देखा तो उसने प्रसन्न होकर अपनी माता से पूछा कि, किम महानुभावने यह शब्द लिखा है। माताने उत्तर दिया कि एक महानुभाव निर्मथाचार्य ने यह बनाया है। इस पर वह गिरि और अरण्य को ढूँढता हुआ उनके श्राश्रममें पहुँचा और भक्तिभावसे नीभूत हो कर उक्त मुनि महाराज से पूछने लगा कि, श्रात्मा का हिन क्या है ? (याँ प्रश्न और इसके बाद का उत्तर- प्रत्युत्तर प्रायः मन्त्र ही है जो 'सर्वार्थसिद्धि' की प्रस्तावना में श्री पूज्यपादाचार्य दिया है।) मुनिराजने कहा 'मोक्ष' है। इस पर मोक्ष का स्वरूप और उसकी प्राप्ति का उपाय पूछा गया जिसके उत्तररूपमें ही इस प्रन्थका अवतार हुआ इस तरह एक श्वेताम्बर विद्वानके प्रश्न पर एक दिगम्बर श्राचार्यद्वारा इस नत्वार्थसूत्र की उत्पत्ति हुई है, ऐसा उक्त कथानक से पाया जाता है। नहीं कहा जा सकता कि उत्पत्तिकी यह कथा कहाँ तक ठीक है। -पर इतना जरूर है कि यह कथा सात मौ वर्षस भी अधिक पुरानी है; क्योंकि उक्त टीकाके कर्ता बालचंद्र पुरानी बातों की खोज २७१ मुनि विक्रम की १३ वीं शताब्दी के पूर्वार्धमें हो गये हैं। उनके गुरु 'नयकीर्ति' का देहान्त शक सं० १०९९ (वि० मं० १२३४) में हुआ था । मालूम नहीं कि इस कड़ी टीका पहलेके और किस ग्रंथ में यह कथा पाई जाती है। तत्वार्थ सूत्र की जितनी टीकाएँ इस समय उपलब्ध हैं उनमें सबसे पुरानी टीका 'सर्वार्थसिद्धि' है । परन्तु उसमें यह कथा नहीं है। उसकी प्रस्तावना से सिर्फ इतना पाया जाता है कि किसी विद्वानके प्रश्न पर इस मूल ग्रन्थ (तत्वार्थमुत्र) का अवतार हुआ है। वह विद्वान् कौन था, किस सम्प्रदाय का था, कहाँ का रहने वाला था और उसे किस प्रकारसे प्रथकर्ता आचार्य महोदय का परिचय तथा समागम प्राप्त हुआ था, इन सब बातोंके विषय में उक्त टीका मौन है। यथा कश्चिव्यः प्रत्यासन्ननिप्रः प्रज्ञावान स्वहितमुपलविवि पर रम्यं भव्यमत्वविश्रामास्पदे कचिदाश्रमपद मुनिपरमध्ये मन्निराणं मूर्तमिव मोक्षमार्गम afeमर्ग | वपुषा नियन्तं युत्यागमकुशलं परहितप्रतिपादक कार्यमार्यनित्र्यं निर्मथाचार्यवर्यमुपसण सविनयं परिपृच्छतिम्म, भगवन किंम्बल आत्मनो हितं स्यादिति । स श्राह मोक्ष इति । स एव पुन प्रत्याह fs rajisa मोत कश्चाम्य प्राप्युपाय इति । आचार्य आह..." दमकलम्य शिलालेख २०४० । * इस पक्की प्रतिमें प्रभावाचार्य ने प्रश्नकर्ता मध्यपुरुष का नाम दिया है जो पाठकी प्रकुिछ यमन मा हो रहा है, और प्रायः 'सिक्स' की जान पड़ता है, (देवी, मी मालाका ०८) । और हम कथाका सम्बन्ध वीं शती तक पहुँच जाता है
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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