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अनेकान्त
वर्ष १, किरण ११, १२
माताके आँसुओंकी नदी
लवक-श्री० पं० नाथगमी प्रेमी]
(१) आओ आओ यहाँ, मेरे प्यारं सुत सारं ! निर्धनके धन अहो । दुग्वी नैनों के तारं ! अपनी बीती कथा, व्यथा की सर्व सुनाऊँ जी-भर गेऊँ और तुम्हें भी साथ कलाऊँ !'
मंरा प्रखर प्रकाश जगत में फैलात थे; जिसे देख प्रतिपक्षी चकचौंधा जात थे । स्यादवाद की दिव्य ध्वजा, जब लहरानी थी; वादीन्द्रों की भी छाती तब, थहराती थी ।
बहुत दिनों से शोक-सिन्ध यह उमड़ रहा था; सकता था नहिं किसी तरह मे, घमड़ रहा था ! आज तुम्हे सम्मुख लख, मेरे रहा न वश का; असुमनके मिस बढ़ा वेग, देखो यह उसका !!
किन्तु रही यह नहीं अवस्था चिर दिन मेरी; सौख्य-गगन पर घिर आई दुखघटा घनेरी ! सुखसामग्री हाय ! न जाने कहाँ विलानी ! विपदाओं पर विपदायें, आई अनजानी !!
(८) अंग हुए विच्छेद और प्रत्यंग गय गल, अतिशय कृश हो गई, देहलतिका मेरी ढल ! रक्षक भी विद्वानपत्र नहिं रहे लोकम; मन्दज्योति आँखों की हुई असह्य शोकमें !!
दो हजार वर्षों का भुला हुआ पुरावन; म्मृति पट पर लिख गया, दीग्वने नगा यथावत । छाती दरकी जाती है, उसका विचार कर; ऊँचे मे नीचे गिरना नहिं किस कप्रकर"
एक समय वह था, जब यह भारत सुखकारी; मम पुत्रोंसे ही था, अतुलित महिमाधारी । विद्या-बल-धन-मान-दानकी प्रथम बड़ाई, मेरे ही बेटों के थी हिस्से में आई ।।
अभिमानी बहिरात्मबुद्धि पाखंडपरायणकई कुपूतोन पाकर, थोड़ासा कारण । सत्यानाशी कलह उठाई घरकी घर में; किये एकके कई, न सोचा कुछ भी उरमें !!
बड़े बड़े राजा, महाराजा, सचिव, वीरवर; धनकुबेर, व्यापारी, कवि, विद्वान, धुरंधर । थे अगनित मम पुत्र वंशमुख उज्वलकारी; तन-मन-धनसे करने वाले सेवा प्यारी ।।
आपस में लड़ मरे किया हित यों चोरोंका, अपनी बोर न देख, बढ़ाया बल रौरोंका ! लीला फट महारानी की बड़ी विलक्षण, अपने-परका मान भुला देती जो तत्क्षण !!
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