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________________ २८४ अनेका महाराज खारवेल [ ले० - श्री० बाबु छोटेलालजी जैन, फलकता ] यह बात सत्य है कि जिस जातिका इतिहास नहीं वह जाति प्रायः नहीं के तुल्य समझी जाती है। कुछ समय-पूर्व जैनियोंकी गणना हिन्दुओंमें होती थी, किंतु : जबसे जैनपुरातत्वका विकास हुआ है तबसे संसार हमें एक प्राचीन, स्वतंत्र और उच्च सिद्धान्तानुयायी समझने लगा है। साथ ही, हमारा इतिहास कितना अधिक विस्तीर्ण और गौरवान्वित है यह बात भी दिन-पर-दिन लोकमान्य होती चली जाती है । वह समय अब दूर नहीं है जब यह स्वीकार करना होगा कि 'जैनियों का इतिहास सारे संसार का इतिहास है'। गहरी विचारदृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज जैन सिद्धान्त सारे विश्वमें अदृश्य रूप से अपना कार्य कर रहे हैं। जैनसमाज अपने इतिहास के अनुसंधान तथा प्रकाशनमें यदि कुछ भी शक्ति व्यय करता तो आज हमारी दशा कुछ और ही होती । इतिहास से यह सिद्ध हो चुका है कि निर्बंध दिगम्बर सत ही मूल धर्म है। यदि हमारे समस्त तीर्थोंका इतिहास प्रकाशिव हो जाता तो आज उन धर्मवर्धक तीर्थों के झगड़ों में समाज की शक्तियों और समय का अपव्यय न 1. होता । सामाजिक और धार्मिक उलझनें इतिहास की सहायता से जल्दी और सुगमता से सुलझ जाती हैं। 'अनेकान्त' की तृतीय किरण में श्रीमुनि पुण्यविजयजीने, अपने लेख में, खारवेलको श्वेताम्बर सिद्ध करने की चेष्टा की है। मैं इस बाससे सहमत नहीं हूँ * अच्छा होता यदि यहाँ 'मूल' की मर्यादा का भी कुछ कर दिया जाता, जिससे पाठकों को उस पर ठीक विचार करनेका अक्सर निवाता । - सम्पादक [वर्ष १, किरण ५ कि यदि कोई खास वाक्य या पाठ श्रीमान् पं० नाथूराम जी प्रेमी और श्रद्धेय पंडित जुगलकिशोरजी मुख्तारकी दृष्टिमें अभी तक नहीं आया हो तो इससे दिगम्बर साहित्य में उसका अभाव मान कर उसे श्वेताम्बर ही मान लिया जाय X x वह पाठ 'श्वेताम्बर हो' है-दिगम्बर नहीं; ऐसा मुनिजी का उनके लेखसे कोई दावा मालूम नहीं होता। वे तो स्पष्ट लिख रहे हैं कि - "दिगम्बर जैनसम्प्रदायके प्रत्थोंमें ' काय मिली. दीयाय यात्रा व केहि अंशके साथ तुलना की जाय एम पाठ हैं या नही यह जब तक मैंने दिगम्बर साहित्य का अध्ययन साहित्यमें मुनि जीके द्वारा इस पाठकी संभावना का कोई निषेध न होने नहीं किया है तब तक मैं नहीं कह सकता हूँ ।" इससे दिगम्बरसे यह प्रपति व्यर्थ जान पड़ती है। इसी तरह खारवेल के श्वेता म्बर होने का भी उनकी तरफ़से कोई दावा नहीं किया गया । उन्होंने तो जो वाक्य उदधृत किया है उसके उस अशा नहीं दिया जिससे खारवेल द्वारा बस्त्रधारी साधुओं का कुछ सत्कारित होना पाया जाता है । और यदि देते भी तो वे उसके द्वारा उससे अधिक और कुछ प्रतिपादन न कर सकते जितना कि उस पाठक पुनराविर्ता महाशय काशीप्रसाद जी जायसवाल ने किया है और जिनका तद्विषयक एक लेख अनेकान्त की ४ थी किरणमें प्रकाशित भी किया जा चुका है। खारबेल महाराजके दिगम्बर होने पर भी उनके द्वारा अपने श्वेताम्बर भाइयों का सत्कारित होना कोई अनोख बात नहीं कहा जा सकता - खासकर उस जमाने में जब कि परस्प मतभेद ने भाज- कज़ जैसा कोई उम्र रूप धारण नहीं किया था और ऐसी हालतमें जब कि खारवेल खुद एक उदार हृदय सम्राट थे, सर्वमतेकि प्रति पावर भाव रखते थे, उन्होंने ब्राह्मणों तकका क किया है और वे अपनी पंतीस लाख प्रजा को मनुः जित (प्रसन रखने का शिलालेखामें ही उल्लेख करते हैं। अतः इस सत्कारमात्रमे, यदि वह पाठके मापन न होने पर ठीक भी हो तो, खारवेलक दिगम्बर होनेमें कोई बाधा नहीं आती, जिसकी किसी को चिन्त करती परे । -सम्पादक
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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