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________________ चैत्र, बीर नि०सं०२४५६] जैनधर्म में महिंसा २८३ प्रान्तमें जितने जैनी हैं, उनका बहुभाग कृषिजीवी भरतका वैराग्यमय जीवन प्रसिद्ध है। लेकिन प्राणदण्ड की व्यवस्था इन्हींन निकाली थी। जैनियों के पुराण तो __कुछ लोगों का यह खयाल है कि जैनी हो जाने युद्धोंसे भरे पड़े हैं; और उन युद्धोंमें अच्छे अच्छे अणुसे ही मनुष्य, राष्ट्रके काम की चीज नहीं रहता-यह प्रतियों ने भी भाग लिया है। पापगण में लगाई राष्ट्रका भार बन जाता है। परन्तु यह भूल है। यद्यपि पर जाते हुए क्षत्रियों के वर्णनमें निम्न लिखित लोक इम भूल का बहुत कुछ उत्तरदायित्व वर्तमान जैन- ध्यान देने योग्य हैसमाज पर भी है, परंतु है यह भूल ही । राष्ट्रकी रक्षा सम्यग्दशनसम्मनः शरः कापदणबती। के लिये ऐसा कोई कार्य नहीं है जो जैनी न कर सकता पृष्टतो वीक्ष्यते पायोःपुरसिदशकन्यया॥७३१५८ हो, अथवा उस कार्यके करने से उसके धार्मिक पदमें इसमें लिखा है कि किसी सम्यग्दृष्टि और मणुबाधा आती हो। जैनियोंके पौराणिक चित्र तो इस व्रती मिपाही को पीई में पली और मामले में देवविषय में पाशातीत उदारता का परिचय देते है । युद्ध कन्याएँ देख रही हैं। का काम पुराने समय में क्षत्रिय किया करते थे । प्रजा अगर जैनधर्म बिलकुल वैश्योंकाही धर्म होता तो की रक्षाके लिये अपराधियों को कठोरसे कठोर दंड भी उसके साहित्यमें ऐसे दृश्यन होते। इसलिये यह मच्ची तात्रय देते थे । इन्हीं क्षत्रियों में जैनियोंके प्रायः सभी तरह समझ लेना चाहिये कि अपनी, अपने दुम्बियों महापरुषांका जन्म हुमा है। चोवीस तीर्थ कर, बारह की अपने धन और भाजीविका की रखाके लिये जो चक्रवर्ती, नव नारायण, नव प्रतिनारायण, नवबलभद्र हिमा करनी पड़ती है. वहसंकल्पी हिंसा नहीं है, उसका य ६३शलाका पुरुष क्षत्रिय थे । २४ कामदेव तथा अन्य त्यागी साधारणजैनी तो क्या अणुव्रतीभी नहीं होता। हजारों भादर्श व्यक्ति क्षत्रिय थे । इन मभी को युद्ध इससे माफ मालम होता है कि जैनधर्मकी अहिंसा न और शासनका काम करना पड़ता था। धर्मके सबमे तोमव्यवहार्य है, न संकुचित है, और न ऐहिक उन्नति बड़े प्रचारक तीर्यकर होते हैं । जन्मस ही इनका जीवन का बोधक है। वर्तमान अधिकांश जैनी अपनी साँचे में ढला हुआ होता है । इनका सारा जीवन एक कायग्ना या अकर्मण्यता को छिपाने के लिये बड़ी बड़ी आदर्श जीवन होता है । लेकिन तीर्थंकरोंमें शान्तिनाथ बाने मारा करते है परंतु वास्तवमें अहिंसाके साधारण कुंथुनाथ अरनाथ ने तो आर्यखण्ड नथा पाँच म्लेच्छ, रूपके पालक भी नहीं होतं । हाँ, ढोंग कई गुणा खण्डों की विजय की थी। भगवान नेमिनाथ भी युद्ध दिखलाते हैं। इन्हें देख कर अथवा इनके भाचरण पर में शामिल हुए थे। इस युगके प्रथम चक्रवर्ती सम्राट से जैनधर्मकी अहिंसा नहीं समझी जा सकती।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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