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________________ २४४ ही उनको जीवन शक्तिसे बश्चित करना, उनकी सर्वाग उन्नति न होने देना और उन्हें दुर्बल तथा शक्तिहीन बनाना पाप ही है । अनेकान्त [वर्ष, किरण ४ उसके मनमें झिझक प्रकट होने लगी और स्वयं उसे अपनी सत्यता के विषय में सन्देह होने लगा । सचमुच यह एक बड़ा भारी दुर्भाग्य था और उसके माता पिता भी उसे दुर्भाग्य ही समझते थे । जिस समय वह बच्चा घर में होता था, उस समय वे उसे अपने निश्चय पर दृढ़ रहने और प्रत्येक बात में स्वयँ सोचने के वास्ते प्रोत्साहित करके उसके इस भयँकर पतन को रोकने का प्रयत्न करते थे । वे केवल कर भी यही सकते थे । सौभाग्य से बचपन के संस्कारों ने उसके हृदय पर इतनी गहरी छाप लगादी थी कि स्कूल छोड़ने के पश्चात् शीघ्रही उसके मन परसे परावलम्बन, श्रात्मसन्देह और अपने निश्वयों में अविश्वास के भाव मिटने लगे । उस ने अपना व्यक्तित्व फिरसे प्राप्त करलिया । उसके माता पिता उसके उन दृढ़ निश्चयों को सुनकर प्रसन्न होते थे जिनसे आत्मा का प्रभुत्व स्पष्ट प्रकट होता है । यह बात भली प्रकार समझ लेनी चाहिये कि व्यक्तित्व क्या है ? इसके विषय में हमारे मनमें कोई सन्देह नहीं रहना चाहिये । अभिमान, दुराग्रह और घमण्ड से चिल्लाना व्यक्तित्व नहीं है। मूर्खता से मन को बशमें रखना, बिना विचारे कुछ ही कहना, अक्ख ड़ता और उच्छृंखलता का नाम भी व्यक्तित्व नहीं है। अतिसाहसी तथा अतिश्रात्मविश्वासी बालक अथवा युवक या युवती सबै व्यक्तित्व को छोड़ किसी दूसरी ही वस्तु के द्योतक हैं। ये तो प्रत्येक बात में टांग अढ़ाने वालों के अज्ञान और उनके निकृष्ट संस्कारों के द्योतक होते हैं। सम्भवतया यदि बच्चों को उनकी अपनी ही समझ पर छोड़ दिया जाय तो उनमें यह बातें अपेक्षाकृत कम ही होंगी, कारण कि अल्पकालिक प्रतिसाहसी आक्रमणकारी तथा बातूनी वर्षोंको न तो कोई प्रेम ही करता है। और न कोई आदमी उनकी प्रशनां 1 बालकों की आन्तरिक न्याय बुद्धि का किस प्रकार नाश हो जाता है और फिर वह किस प्रकार पुनरुज्जीवित हो सकती है, इस बात को निम्न लिखित घटना द्वारा स्पष्ट रूपसे समझा जा सकता है। एक बच्चा था । उसके माता पिता इस बात को जानते थे कि बच्चे के हृदय में सिद्धान्तों को समझने की शक्ति पूर्णतया विद्यमान होती है और यदि बच्चे को अपनी न्यायबुद्धिको व्यवहार में लाने का अवसर दिया जाय तो वह स्वभाव से अपने हित-अहित की बात अच्छी तरह सोच सकता है । अतएव वे दोनों बाल्यावस्था से ही अपने बच्चे के आन्तरिक गुणों और शक्तियोंको प्रोत्साहित करते, उत्तेजना देने, और उन्हें बढ़ाने का प्रयत्न करते थे । ऐसे प्रयत्न का जो फल होना चाहिये था वही हुआ । सात वर्षकी छोटी सी आयु में उस बच्चे का व्यक्तित्व दृढ़ हो गया | वह बिना किसी झिझक, आनाकानी और दलील दृढ़ निश्चयपूर्वक 'न' और 'हाँ' कहता था। उसके माता पिता उसके फ़ैसले निश्रयका सदा यादर करते थे और उसको स्वीकार करते थे। इसके पश्चात् वह स्कूलमें भरती किया गया, परन्तु वहाँ जाते अभी थोड़े ही दिन हुये थे कि उससे उसकी बिना फिकके निश्चय करने की वह अपूर्व शक्ति विदा होने लगी। उसकी सुन्दर और स्पष्ट विचारशक्ति मन्द पड़ गई, मानों उस पर बादल छा गये। सहज सहज उसके मुखसे वे निश्चित 'न' और 'हाँ' निकलने बन्द हो गये, जिनकी सब आदमी प्रशंसा किया करते थे । बात यहीं समाप्त नहीं हुई उसकी आत्मा मिर गई, मिश्रय स्थिर करते समय '
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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