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________________ अनकान्त [वर्ष १, किरण ४ इस संक्षिप्त 'हॉ-तो' में पचने नजानेक्या क्याभर झमट अंतिम सत्य (absolute fact) के बाद नहीं दिया। अवज्ञा भी, उत्कंठा भी। भर्सनाभी, चाहनाभी। चलना चाहिये। लेकिन कुमार उस तारेसे खिंच रहे हैं, जो अपनी रूप जब तक दूर है, जब तक झिलमिला होकर, चमक को मिलमिली, अंधेरे-की-परत में से मंका दि- छिपकर, लककर, लजा कर, पूर्ण रूपसे अपने श्राखा कर, और भी चमकीला बना कर, गप चुप, मानों पको सामने प्रत्यक्ष नहीं होने देता, तब तक उसका हँस रहा है। कहा आकर्षण अनिवार्य है। चूंघट में बंद रूप की ओर . 'तो फिर अपनी सहायता मुझे आप करनी होगी।' कुमार की दृष्टि हठात्न पहुँचे,यहवैज्ञानिक संभावना भोर कह कर पलंग से उतर आये, तनिक बदके दोनों (physical imposibility) है । तब तक चैन नहीं हाथों से रूप की श्री को निरावत कर दिया। मिलता, क्यों कि सम्पूर्ण-ज्ञान और सम्पूर्ण-अनुभूति रूपकी वह अरुण श्री कॉपती, सहमती, मानों उस में ही चैन है। असम्पर्णता में चैन का अभाव है।' खुले मुख पर कोई अोट की जगह पाने के लिये चकर निश्चयरूप में कहना कठिन है कि उन कन्याओं में खाती घूमने लगी। कपोल सिंदूरिया हुए, फिर लाली रू मने लगी। कपोल सिंदरिया ए. फिर लाली रूपश्री, पद्य, विनय और कनकादिसे संदर थी। ओठों पर दौड़ाई, पलकों ने तारों को कसकर मीच विशेष कर पद्मश्रादि सौंदर्य को परिस्कृत और परिलिपा, बदन पर पुलक और रोमाँच प्रगट हो पाया । सजित करके प्रस्तुत थीं । किंतु रूप के संबंध में श्र... आह, मोह, नहीं...,-मानों यही कहती हुई वह प्राप्य के आकर्षण ने जो रूपश्री के सौंदर्यको लावरूपश्री गड़ कर खत्म हो जाना चाहती है। एय और स्पृहणीयता प्रदान कर दई, उसी ने स्वामी के अंतर को कुरेदने में सफलता पाई। दीक्षा ले जाने को उद्यत कुमार को इतने पापह- और यदि रूप का घूघट न खल पाता तो कुमार पर्वक रूप को स्पष्ट देखने का लोभ क्यों हमा? की दीक्षा का निश्चय कहाँ तक ठरता, कहना कठिन है। अंधे होने से पहले किसी उन्मत्त को भरी-दुपहरी और यदि कुमार उस रूपकी वखावत श्री की और के सूरज की ज्योति देखने का लालच क्यों होता है? इतनी विवशता और प्रगल्भता से आकृष्ट न होते, तो जब बॉखें अंधी हो जायेंगी तो सर्य-रश्मि से फिर सं- उन्हें, इतनी उच्छृखलता और लालच से उसका चूंघट पंप ही उसका क्या रहेगा, फिर भी दिव्य-प्रकाश के खोलने का अवसर आता या नहीं, इसमें संदेह है। प्रति बॉखों का मोह क्यों है ? चाहे भाँखें फोही योन, फिर भी क्यों चाह होती है कि फूटने से पहले बीच थोथरी हो गई, कुमार ने कहा । चूंघट खुलने पर भरपुर देखा, चाह की धार इस एकपार बहुत-से प्रकाशको खींच कर भीतर संचित कर लिया जाय १ जिससे संबंघटना है और तोड़ना 'रूप, इसी को तुम छिपाती थीं ? छिपाने की क्या बात है ? यह तो प्रदर्शन के योग्य वस्तु हो सकती है। है, उसी को इतने निकट लाकर, स्पष्ट, प्रत्यक्ष देखनेकी या तुमने समझा, इसके प्रदर्शन का यही तरीका है । ममता क्यों? इस शाश्वत क्यों का उत्तर हम क्या हैं और जैसे सहसा खुल कर रल सामने नहीं पाते,-प्रदर्शकोईक्या लेकिन निकट लाये बिना स्पष्ट दीखता नियों में उनके मखमल के बक्स ही सजा कर रक्खे जिनको रल मिलते हैं. वे क्या उन्हें नहीं, स्पष्ट देखे बिना सांत्वना नहीं मिलती, भवबोध , मखमल में ढके रके देख कर हो संतुष्ट हो लें ?- सो नहीं प्राप्त होता, अवधि के बिना फिर अपना और , उसका अंतर ठीक-ठीक नहीं जान पड़ता-इसी प्रकार तुम नाराज तो नहीं होन। ...अच्छा सुनो। " की श्रृंखला के जरिये दूर करने के लिये पास लाने की पंपट के पट खोल री, सोहि राम मिलेंगे। कबीर भावश्यकता हो जाती है। बससे जाती है क्यों' का (क्रमशः) X X X x
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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