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________________ ४२० भनेकान्त वर्ष १, किरण ६, ७ संपादकीय टिप्पणियोंके विरुद्ध लेख छाप देना मुझे आएँ वह प्रकट कर दीजिये। बाकी लौटा दीजिये। अशक्य अँचा क्योंकि पिछले साबकैसे मैं इस ही 'खारवेल'के शिलालेखका पहला पाठ मि०जायसनतीजे को पहुँचा हूँ। 'अनेकान्त' की ४ थी किरणमें वालनेJBORS के भाग३में प्रकट किया था और उस मेरा एक नोट खारवेलके लेख की १४वीं पंक्तिके सम्बंध का संशोधन फिर कियाथा और उस संशोधित रूपका में प्रकट करके मान्य संपादकने एक उपहाससा किया भी संशोधन गत वर्ष प्रकट किया है। मैंने पहला रूप है और यह जाहिर किया है मानो उस पंक्तिका विशेष और अन्तिम रूप देखा है और इसमें जो अन्तर हुआ सम्बंध श्वेताम्बरीय सिद्धान्तसे है और इस सम्बंधमें वह प्रकट किया है परन्तु बीचका संशोधित रूप देखे उन्होंने मि० जायसवालका वह अर्थ भी पेश किया है. बिना कुछ स्पष्ट मैं नहीं लिख सका हूँ। यदि आप दिल्ली जिसमें 'यापज्ञापक' शब्दका अर्थ जैनसाध करके, उन में उसको देख कर फिर मिलान करलें तो अच्छा हो । साधुओंकोसवस्त्र प्रकट किया गया है। मैंने इस पर उनको मरे खयालमें मुनिजीका पाठ अब शायद ही उसके लिखा कि पर्वोक्त नोटको उस हालतमें ही प्रकट करन उपयक्त हों।" को मैंने आपको लिवा था जब कि आप सन १९१८ दसग पत्र- 'अनेकान्त'का ४था अङ्क मिला में जो इस पंक्तिका नया रूप प्रकट हुआ है, उसे देख उसमें आपने मेरे वारवेलके शिलालेखकी १४वीं पंक्ति कर ठीक करलें । अतः आप इस बातका संशोधन वाले नोट को यही प्रकट करके अच्छा बेवकफ बनाप्रकट करदें और आप जो जायसवालजीके अनुसार या है । खेद है, आपने उसके साथ भेजे हुए मेरे पत्र यापज्ञापक शब्दसे जैन साधुओंको सवस्त्र प्रकट करते है सो ठीक नहीं; क्योंकि यापज्ञापक शब्दका अर्थजैन पर ध्यान नहीं दिया ! मैंने लिखा था कि जायसवाल जी ने इसके पहले (सन् १९१८ में ) जो संशोधन साधु काल्पनिक है-किसी प्रमाणाधार पर अवलम्बित किया था, वह मेरे पास नहीं। मुझे उसीका खयाल नहीं है ! किन्तु सम्पादक महोदयन इस संशोधनको ___ था और उमी पर यह नोट लिखने लगा-पर वह जब प्रकट करने की कृपा नहीं की। इसीस प्रस्तुत लेख मिला तो जो कछ लिखा था, वह य ही पूरा करके "दिगम्बर जैन" में भेजने को बाध्य हुआ हूँ।" आपको भेज दिया और यह चाहा कि आप दिल्लीकी अब मैं अपने पाठकोंके सामने बाब साहबके उन किसी लायब्रेरीसे उसे ठीक करके उचित समझे तो दोनों पत्रोंको भी रख देना चाहता हूँ जो आपने अपने प्रकट करें। उसको उसी शक्लमें छापने की चन्दा उक्त दोनों लेखोंके साथमें भेजे थे और जिनकी तरफ़ ज़रूरत नहीं थी और न ऐसा मैंने आपको लिखा आपने अपने उक्त आक्षेपमें इशारा किया है । और था। खैर अब आप उचित समझे तो इस ग़लती को साथही, यह निवेदन किये देता हूँ कि वे 'अनेकान्त' की आगामी अङ्कमें ठीक करदें। मैं नहीं समझता आपने ४थी किरणके पृ० २३० पर मुद्रित बाब साहबके उस उस नोटको प्रकट करके कौनसा हित साधन किया ! लेखको भी सामने रख लेवें जिसे आपने अपने उक्त हाँ, रही बात श्वेताम्बरत्व की सो जायसवालजीने जो श्राक्षेपमें "नोट" नाम दिया है। इससे उन्हें सत्यके यापज्ञापकों को श्वेताम्बरोंका पूर्वज बतलाया है, सो निर्णयमें बड़ी सहायता मिलेगी, लेखों तथा पत्रोंके पर- निराधार है। इसके बजाय, यह बहुत संभव है कि वे स्पर विरोधी कथन भी स्पष्ट हो जायेंगे और वे सहज उदासीन व्रती श्रावक हों; जिन्होंने व्रती श्रावक खारही में बाबू साहबके आक्षेपका मूल्य मालूम कर वेलकेसाथ यम-नियमों द्वारा तपस्याको अपनाया था। सकेंगे: उनको वस्त्रादि देना कोई बेजा नहीं है । जब उदयगिरि पहला पत्र-'अनेकान्तके' आगामी अङ्कके खंडगिरिमें नग्न मूर्तियाँ मिलती हैं तब वहाँ पर श्वेलिये तीन लेख भेज रहा हूँ। इनमें से जो आपको पसन्द ताम्बरोंका होना कैसे संभव है ? इस बातको जरा
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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