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वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] एक आक्षेप
४२१ श्राप स्पष्ट कर दीजिये । साथमें एक लेख और भेजने प्रकट करने और बाकी को लौटा देने की प्रेरणा की की धपता कर रहा हूँ। अगर उचित समझे तो छापदें गई है । साथ ही, यह स्पष्ट घोषित किया गया है कि वरन् कारण व्यक्त करके इसके लौटाने की दया लेखकने जायसवालजीकं पहले (सन् १९१८ वाले) कीजिये । बड़ा अनुग्रह होगा।"
और अन्तिम (गत वर्ष वाले) संशोधित पाठों को देख ___ यहाँ पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ लिया है, उन्हींका अन्तर लेखमें प्रकट किया है, बीच कि पहले पत्रमें जिस JBORS भाग ३ का उल्लेख का संशोधित रूप देखा नहीं, उसे देख लेने की प्रेरणा है वह विहार-उडीसा-रिसर्च-सोसायटीका सन् १९१८ की गई है और इस प्रेरणाका अभिप्राय इतना ही हो का जर्नल है जिसमें जायसवालजीका पहला पाठ सकता है कि यदि वह बीचका पाठ भी मिल जाय तो प्रकट हुआ था और अन्तिम पाठ जिस जर्नलमें प्रकट उसे भी दे दीजिये, संभव है मुनिजीका पाठ उसीसे हुआ उसका नं० १३ हे और उसे बाब साहबने गत सम्बंध रखता हो और उन्हें नये पाठकी खबर ही न वपमें (अर्थात् सन् १९२९ में) प्रकट हुआ लिखा है। हो । परन्तु मुनिजीका पाठ जब बिलकुल नया पाठ ही इन्हीं दोनों पाठोंके अनुसार आपने अपने पहले लेख मालम हुआ तब संपादकको उस बीचके पाठको खोमें खारवेलके शिलालेखकी १४ वीं पंक्तिको अलग जने की कोई जरूरत ही बाक़ी नहीं रही। उसे तो यह अलग रूपसे उद्धृत किया था और मुनि पुण्यविजय- स्पष्ट जान पड़ा कि लेखक सांप्रदायिक कट्टरताके जी-द्वारा उद्धृत इस पंक्तिके एक अंशको मुनिजीका आवेशमें बेसुध हो गया है । इसीसे अपने सामने जर्नल पाठ बतला कर उसे स्वीकार करनेमें कठिनताका भाव की १३ वीं जिल्द-वाला जायसवालजीका नया पाठ दर्शाया था। साथ ही, जायसवालजीके अन्तिम पाठ और मुनिजी द्वारा उद्घन पाठ मौजूद होते हुए भी को “बहुत ठीक" बतलाया था। परंतु दैवयोगसे उन दोनोंका अभेद उस सूझ नहीं पड़ा और न यही मुनिजीका पाठ जायसवालजीका ही पाठ था और वह खबर पड़ी कि मैं क्या लिग्व रहा हूँ, क्यों लिख रहा हूँ उनका अन्तिम पाठ ही था; इससे सम्पादकीय नोटों अथवा किस बातका विरोध करने बैठा हूँ ? इस प्रकार द्वारा जब उस लेखकी निःसारता और व्यर्थता प्रकट की हानिकारक प्रवृत्तिका नियंत्रण करने और ऐसे की गई तब बाब साहबकी आँखें कुछ खली और लेखकोंकी आँखें खोलनेके लिये ही वह लेख छापा उन्होंने अपने उपहास आदिके साथ यह महसस किया गया और उस पर नोट लगाये गये। मैं चाहता तो उस कि वह लेख छपना नहीं चाहिये था। ऐसी हालतमें लेग्व को न भी छापता-छापनेकी कुछ इच्छा भी नहीं मुनासिब तो यह था कि आप अपनी भूल को स्वीकार होतीथी-परन्तु चूँकि वह लेग्य 'अनेकान्त' के एक लेख करते और कहते कि मैं अपने लेखको वापिस लेताहूँ- के विरोधमें था, उसके न छापने पर बाबू साहब उसे यही उसका एक संशोधन हो सकता था-अथवा मौन अन्यत्र छपात-जैमा कि उन्होंने 'जिम्नोसाफिस्ट्स' हो रहत। परन्तु आपसे दोनों बातें नहीं बन सकी और जमे पद पद पर आपत्तियोग्य लेखको यहाँ मे वापिस इम लिये आप किसी तरह पर उसके छापनका इल- होने पर 'वीर' में छपाया है और यह ठीक न होता। ज्ञाम सम्पादकके सिर थोपना चाहते हैं और यह कहना इसमें छापने में कुछ प्रसन्नता न होने हुए भी उमका चाहते हैं कि हमने तो उसके छापने के लिये अमुक शर्त छापना ही उचित समझा गया । और इमलिये लेग्बके लगाई थी अथवा "उस हालतमें ही प्रकट करनेको प्रकट होनेके बाद जब बाबसाहबका दूमग पत्र प्राया लिखा था जबकि आप १९१८ में जो इस पंक्तिका नया तो उसके खेद' आदि शब्दों परसे मुझे आपकी मनोरूप प्रकट हुआ है उसे देख कर इसे ठीक करलें ।" वृत्ति और पूर्व पत्रके विरुद्ध लिखनेको देख कर बड़ा परंतु पहले पत्रमें ऐसी कोई शर्त आदि नहीं है-उसमें अफसोस हुआ और इस ना-समझीको मालूम करके साफ तौर पर तीनों लेखों में से जो पसंद आए उस तो और दुःख हआ कि आप अभी तक भी अपनी