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________________ वैशाख, ज्येष्ठ, वीरनि०सं० २४५६] एक आक्षेप ४१९ एक आक्षेप लेखोंका सम्पादन करते समय जिस लेखमें मुझे जो लेखद्वारा हालके 'दिगम्बरजैन' अङ्क नं० ७ में प्रकट बात स्पष्ट विरुद्ध, भ्रामक, त्रुटिपूर्ण, ग़लतफहमी किया है । और इस तरह अपनी निर्दोषता, निर्धान्तता, को लिये हुए अथवा स्पष्टीकरणके योग्य प्रतिभासित तथा युक्ति-प्रौढताको ऐसे पाठकोंके आगे निवेदन करके होती है और मैं उस पर उसी समय कुछ प्रकाश अपने चित्तको एकान्त शान्त करना चाहा है अथवा डालना उचित समझता हूँ तो उस पर यथाशक्ति सं- उनसे एक तरफा डिगरी लेनी चाही है, जिनके सामने न यत भाषामें अपना (सम्पादकीय) नोट लगा देता हूँ। तो मुनि पुण्यविजयजी तथा मुनि कल्याणविजयजी वाले इससे पाठकोंको सत्यके निर्णयमें बहुत बड़ी सहायता वे लेख हैं जिनके विरोधमें आपके लेखोंका अवतार मिलती है, भ्रमतथा ग़लतियाँ फैलन नहीं पाती, त्रुटि- हुआ था, न आपके ही उक्त दोनों लेख हैं और न उन योंका कितना ही निरसन हो जाता है और साथ ही परके सम्पादकीय नोट ही हैं, और इसलिये जो बिना पाठकों की शक्ति तथा समय का बहुत-सा दुरुपयोग उनके आपके कथनको जज नहीं कर सकते-उसकी होनसे बच जाता है । सत्यका ही एक लक्ष्य रहनेसे कोई ठीक जाँच नहीं कर सकते । इस लेख परसे मुझे इन नोटोंमें किसी की कोई रू- रियत अथवा अन- आपकी मनोवत्तिको मालम करके दःख तथा अफसोस चित पक्षापक्षी नहीं की जाती; और इस लिये मुझे हुआ ! यह लेख यदि महज़ सम्पादकीय युक्तियों अपने श्रद्धेय मित्रों पं० नाथूरामजी प्रेमी तथा पं० सुख- अथवा आपत्तियोंके विरोधमें ही लिखा जाता और लालजी जैसे विद्वानोंके लेखों पर भी नोट लगाने पड़े अन्यत्र ही प्रकाशित कगया जाता तो मुझे इसका कोई हैं, मुनि पुण्यविजय और मुनि कल्याणविजयजी जैसे विशेष खयाल न होता और संभव था कि मैं इसकी विचारकोंक लेख भी उनसे अछूते नहीं रहे हैं । परन्तु कुछ उपेक्षा भी कर जाता । परन्तु इसमें संपादककी किसीने भी उन परसे बरा नहीं माना,बल्कि ऐतिहासिक नीयत पर एक मिथ्या आक्षेप किया गया है, और इसविद्वानोंके योग्य और सत्यप्रेमियोंको शोभा देने वाली लिय यहाँ पर उसकी असलियतको खोल देना ही मैं प्रसन्नता ही प्रकट की है । और भी दूसरे विचारक तथा अपना कर्तव्य समझता हूँ । आक्षेपका सार इतना ही निष्पक्ष विद्वान मेरी इस विचारपद्धतिका अभिनन्दन है कि-'यदि यह लेख 'अनकान्तके' सम्पादकके पास कर रहे हैं, जिसका कुछ परिचय इस किरण में भेजा जाता तो वे इस न छापत, क्योंकि वे अपनी टिप्पभी पाठकोंको दीवान साहब महाराजा कोल्हापुर जैसे णियोंके विरूद्ध किसीका लेख छापत नहीं, मेरा भी विद्वानोंकी सम्मतियोंसे मालूम हो सकेगा। अस्तु । एक 'संशोधन' नहीं छापा था और उसी परसे मैं इस ___ इसी विचारपद्धति के अनुसार 'अनेकान्त' की नतीजेको पहुँचा हूँ।' आक्षेपकी भाषा इस प्रकार है:चौथी और पाँचवीं किरणमें प्रकाशित होने वाले “ 'अनकान्तकं प्रवीण सम्पादकन हमारे लेख पर बाब कामताप्रसादजी (सम्पादक 'वीर') के दो लेखों कई आपत्तियों की हैं। उनका उत्तर उसी पत्रमें छपता पर भी कुछ नोट लगाये गये थे। पाठकोंको यह जान ठीक था, परन्तु उक्त सम्पादक महोदयका अपनी कर आश्चर्य होगा कि उन परसे बाबू साहब रुष्ट हो गये हैं और उन्होंने अपना रोष एक प्रतिवादात्मक लेखका शीर्षक है 'राजा खारवेल और उसका वंग' ।
SR No.538001
Book TitleAnekant 1930 Book 01 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1930
Total Pages660
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size83 MB
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